मैं हुं क्या
कभी..कभी मैं सोचती हुं मैं हुं क्या ,
मोहब्बत का इक कतरा ,
या किसी शिथिल नदी का किनारा ,
फुलों की खुशबू ,
या ठण्डी हवा का झोंका ,
सहर की ताजगी ,
या डुबती हुए सूरज का अंधियारा !
कभी मैं!
किसी टुटे हुए दिल की सुगबुगाहट ,
या उड़ते हुए रंग..बिरंगी तितलियों की चंचलताहट ,
गरमी की तपन हुं ,
उषा की पहली किरण हुं ,
मासुम ,निश्छल बचपन हुं ,
या किसी किशोरी की लड़कपन हुं !
कभी..कभी!
एक खुशनुमा एहसास हुं ,
या कमजोर हुं या बिंदास हुं ,
कल्पना हुं या यथार्थ हुं ,
नेकी का इक बूँद हुं ,
या खुदा की पाक इबादत हुं ,
नित्य रोज़ एक..एक अध्याय ख़त्म हो रहा है वो खुली किताब हुं मैं ,
जो कभी पूर्ण ना हो सके वो खुबसूरत ख्वाब हुं मैं ,
हरपल उधेड़बुन करती रहती हुं वो चंद सवालात हुं मैं ,
चाहे जो भी हुं
जीवंत हुं स्वतंत्र हुं चलते चलते जो रुक जाएगी मैं वो जीती..जागती कहानी का अंत हुं !
कभी
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