कहानी: मनी प्लांट

"चीं, चीं, चीं..." यह कौन पंछी आ गया? आटा गूँथते-गूँथते कुसुम के हाथ रुक गए। रसोई की खिड़की से झाँक कर देखा तो बरामदे का आँगन पहले-सा सूना लगा। इस सूनेपन के बीच भी यह आवाज़ कहीं से अपने होने का एहसास करवा रही थी। देखूँ कहीं कोई पंछी घायल तो नहीं! सोचते-सोचते कुसुम के हाथ रुके और आटे से सने हाथों से उसने आँगन का दरवाज़ा खोला। "कहाँ से आ रही है यह आवाज़?" छानबीन करती कुसुम की आँखें मनी प्लांट के बीच बैठे गौरैया के जोड़े पर जा पड़ीं। दुनिया से बेख़बर अपनी ही मस्ती में चोंच-से-चोंच मिलाते गौरैया जैसे गा-गाकर अपने सुरों को साध रहे हों। बड़ी देर तक कुसुम उन्हें एकटक निहारती रही। पूरे आँगन में फैला मनी-प्लांट जैसे उनका महल हो और वे दोनों उसके राजा-रानी। उन्हें प्यार से निहारते हुए कुसुम की आँखें यूँ भर आईं जैसे बरसों पहले आदित्य की मासूमियत पर हँसते-हँसते रो दी थीं।
बड़े ही चाव से आदि अपने दोस्त के घर से एक नन्हा-सा मनी-प्लांट लेकर आया था। आते ही खाली बोतल ढूँढने के लिए उसने मानो सारा घर समेट कर एक जगह पर कर दिया। "माँ! जल्दी करो, वरना यह मर जाएगा। इसको अभी एक बोतल में लगा दो।" इससे पहले कुसुम उसके लाने की कहानी सुनती, आदि तो बिन बटन का रिकॉर्डर बजने लगा, "माँ, जानती हो, इसके लगाने से घर में बहुत सारे पैसे आते हैं!" पैसे की बहुतायत दिखाने के लिए आदि ने अपनी नन्ही-नन्ही बाँहों को इस तरह गोल घुमाया और उन्हीं की ताल पर नाचती उसकी गोल-मटोल आँखें... उसकी यह मुद्रा देखकर कुसुम को ज़ोर-ज़ोर से हँसी छूटी और हँसते-हँसते वह भी जुट गई। मनी-प्लांट को रोपने से लेकर अपने समृद्ध भविष्य का निर्माण करने के साथ-साथ कुसुम यह न तय कर पाती कि बढ़ने की दौड़ में आदि और मनी-प्लांट में से कौन पहले नंबर पर आ गया। एक नन्हा-सा पौधा आज पूरे आँगन में अपना विस्तार ले चुका था। कहीं गहरे अपनी जड़ें जमाए और आदि अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों से दूर अमेरिका की धरती को पाने की कोशिश कर रहा था।

खटाक-खटाक... मेन गेट खुलने की आवाज़ और सब्ज़ी का थैला उठाए परेश को आते देख कुसुम अपने आज में लौट आई, जिसमें उसके और परेश के अलावा आज से पहले कोई नहीं था। "परेश, देखो ना, दोनों कितने प्यारे हैं!" कुसुम ने परेश की ओर देखा और नन्हे-से आदि की तरह परेश को बताने में जुट गई। एक छोटा-सा गौरैया का जोड़ा कब इन दोनों के जीवन का आधार बन गया, यह तय कर पाना मुश्किल था। इनको निहारने के लिए आँगन में मेज़-कुर्सी का एक आरामदायक शामियाना लग गया और शाम की चाय में सुरीला गीत मानो मिठास घोलने लगा। परेश ने तो जैसे दोनों को राजनीति और अर्थशास्त्र का ज्ञान देना शुरू कर दिया। रोज़ सुबह ज़ोर-ज़ोर से मनी-प्लांट के पास ही अख़बार पढ़ते और कुसुम मन-ही-मन मुस्कुराती। "प्रोफ़ेसर साहब रिटायर हो चुके हैं पर आदत नहीं गई।"

कुसुम, परेश और गौरैया... छोटा-सा संसार अपने में संपूर्ण-सा, पर अचानक एक दिन घर में सन्नाटा छा गया। गौरैया की चीं-चीं, जो उनके दिन की शुरुआत करती थी, आज मानो खो गई। कुसुम ने घबराकर परेश को उठाया और दोनों आशंकित नज़रों से मनी-प्लांट में बने अपने निर्जीव गौरैया के पास बैठे सपने के घोंसले को निहारने लगे। एक अकेली मादा गौरैया ने दोनों को ऐसे देखा मानो पूछ रही हो, "मैं कैसे गाऊँ?" जीवन की लहरों में साथी के अभाव से सूने मन की मानो मिसाल बनी हो। उदास गौरैया को देखकर कुसुम गिर पड़ी। बड़ी मुश्किल से परेश ने उसे सँभाला और दोनों हाथों से जकड़ लिया। एक बार फिर से सूने पड़े आँगन में अपनी साँसों की आवाज़ से दोनों ही यही मौन प्रश्न कर रहे थे, "क्या हम भी...?" - अनामिका

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