इस बार रक्षा-बन्धन पर फिर वही कुछ याद आ रहा है जो लाख चाहने पर भी भूलता नहीँ है।कहते हैं चोट भले ही ठीक हो जाये,निशान याद तो दिला ही देते हैं।मेरा पालन-पोषण ननिहाल में ही हुआ था,नानी के अत्यधिक मोह ने आने ही नहीं दिया,जबकि मेरे मायके में माता-पिता और मुझसे चार साल छोटा भाई भी था।परन्तु मैं भी ननिहाल में ही रम् गई,तो आने की हालत कभी बनी नहीँ।
हां, तो बात रक्षा-बन्धन की कर रहे थे हम।हमारे मायके में राखी का त्योहार खंडित था,इसीलिये हमने अपने भाई को राखी नहीँ बांधी, लेकिन हमारी नानी ने हमेशा हमारे ममेरे भाई आनन्द को राखी भिजवाई,शायद मैं भी राखी के लिए मचल गई होउंगी या बड़े मामा जी के बेटी नहीँ थी,इसलिए,परन्तु हमेशा भेजी जरूर,बाद में छोटे मामा जी के बेटे को भी भेजने लगी,जब से वो पैदा हुआ।बड़े मामा जी का तो मनीऑर्डर भी आता था---पांच रुपया।
आज के जमाने में ये रकम किसी को भी बहुत छोटी लग सकती है लेकिन सन1970 के आस-पास ये रकम छोटी नहीँ थी,खास बात ये कि मनीऑर्डर भेजने के भी पैसे पड़ते थे।हालांकि उस छोटी उमर में रुपए-पैसे का लालच नहीँ था,जरूरत से ज्यादा मिल जाता था हमें, लेकिन उस पांच रुपये का इंतजार बहुत बेसब्री से रहता था हमें।भले ही खर्च कहाँ करें ये समझ नहीं आता था तब,पर इंतजार तो रहा करता था।आज भले ही पति घर खर्च का हिसाब नहीँ पूछते कभी,सारा अपनी मर्जी के करते हैं हम,लेकिन वो पांच रुपये की ललक आज भी याद आती है। मिलता तो छोटे मामा जी से भी था परन्तु वो जब आते तब ही देते थे,तो इंतजार वाली बात नहीं थी।
ग्रेजुएशन के बाद मायके आ गई,परन्तु राखी भेजती रही उन दोनों भाइयों को जब कि अपना भाई पास होता था,लेकिन खंडित होने के कारण उसे बांध नहीँ सकती थी।उनलोगों को ननिहाल से भेजती थी तो मां ने मना भी नहीँ किया हमें कभी।
फिर शादी हो गई और मैं अपने ससुराल आ गई।यहां से भी मेरी राखी हमेशा जाती रही,लेकिन अब मनीऑर्डर आना बंद हो गया था,बस राखी मिलने की सूचना दोनो जगह से आ जाती थी।छोटे मामाजी तो कभी भेजते थे नहीँ कुछ ,मिलने पर ही देते थे,अब ससुराल तक आना तो हुआ नहीँ,सो वहां से भी कुछ कभी नहीं आया,राखी के नेग के रूप में।मन हमेशा इतना भरा-पूरा रहा कि कुछ मिलने की बात दिमाग में तब आई नहीँ,कभी किसी ने पूछा भी नहीँ, सो मेरी राखी हमेशा जाती रही,पूरे उत्साह से।
दिन, महीने,साल बीतते गये,मेरी गृहस्थी भी चल रही थी अच्छी भली,सब अच्छा था।तब आज की तरह फोन तो थे नहीँ जो पल पल की खबर लगती,जब किसी की भी चिट्ठी पत्री आती तो सारे अपनों की खबर लग जाती थी।
ऐसे ही एक पत्र ने हमें बताया कि हमारे भाई लोग अपने पढ़ने लिखने के सिलसिले में घर से बाहर निकल चुके हैं,उनको निकले दो साल हो चुके हैं।ये खबर मेरे मन में गहरे धंस चुकी थी. बाहर निकलने वाले भाइयो की तरक्की अच्छी लग रही थी,बस कई प्रश्न थे जो मन को निचोड़ रहे थे. जब भाई घर पर हैं ही नहीं तो मेरी भेजी राखी का क्या होता है?आज के जमाने की तरह कूरियर व्यवस्था तो थी नहीँ, हफ्ता भर से ज्यादा लगता था राखी पहुंचने में।हम तो उसी हिसाब से भेजते थे राखी,फिर भाई को मिलती कैसे होगी,क्यो कि दुबारा से भेजने का समय ही कहाँ होता होगा?हमारे मामाजी लोगोँ ने उनलोगों का पता बताने की जरूरत क्यों नहीं समझी?क्या मेरे राखी का कोई मतलब ही नहीं था?हमने तो कभी भी राखी का नेग नहीँ मांगा,फिर मेरी राखी बोझ कैसे बन गई सब पर?
प्रश्न बहुत सारे थे मन में, उत्तर एक का भी नहीँ मिल रहा था।एक बार मन में आया हिसाब लूं सब से,फिर प्रश्न उठा---किस अधिकार से?जब मेरी राखी मजाक बन गई तो फिर प्रश्न कैसा?
आंधी-तूफान तो बहुत उठे मन में फिर मन शांत हो गया।एक निश्चय के साथ हमने राखी भेजनी बन्द कर दी।एक उम्मीद थी कि शायद कोई पूछे----इस बार राखी आई नहीँ तुम्हारी।लेकिन किसी ने नहीँ पूछा।
लेकिन कहते हैं—भगवान के घर देर है,अंधेर नहीँ।मायके से खबर आ गई-----गांव में गाय ने बछड़ा दिया है राखी के दिन,तो अगले साल से राखी अपने भाई को भी भेजना।मैं खुश थी,अचंभित भी----आखिर मेरा दुख भगवान समझ गए थे,मेरे राखी की लाज ईश्वर ने रख ली।मैंने फिर से राखी भेजना शुरू किया लेकिन सिर्फ एक-अपने भाई को ।आज तक उसे भेजते हैँ ,जब तक जिएंगे भेजेंगे क्यों कि उसे ही मेरे राखी की कद्र है।मेरे हर सुख-दुख में वही तो खड़ा होता है हमेशा।
जिंदगी ने अपने-बेगाने का फर्क समझा दिया था।
By, अन्नपूर्णा मिश्र

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