कविता - दहेजी दुल्हन बेटियाँ
दहेजी-दुल्हन-बेटियाँ
मैं परदेश हो गई
अपने ही देश में,मैं विदेश हो गई
बेटियाँ आखिर होती है क्या
जो खुद ही घर की मैं क्लेश हो गई !
मेरे बापू को हर चौखट
पगड़ी रखनी पड़ती हैं
मैं लड़की, मेरे बाप होने का
दंश उसको भी झेलनी पड़ती है !
क्यों बेटी होने पर,
हर संस्कार उसके ही म्यान सजता है
बेटी होने का दर्द,
आखिर वस्त्र बदलकर पुरा करना पड़ता है !
अञानी बनाकर पहले उसे
अञान होने का प्रमाण दिया जाता है
चूल्हे की जलती लकड़ी से
बेटियों को अपराध-बोध करारा जाता है !
बेटियाँ अपने घर की गुड़ियॉ छोड़कर
उन्हें गुड़ियॉ देने आती है,
फिर भी ससुराल का ताना-बाना तो सुनिए
उन्हें गुड़ियॉ छोड़ गुड्डे पे मोह आ जाती है !
मैं समझ गई, मुझे खरीदा जा रहा….
मैं ‘चीज” मेरी कोई ख्वाहिश नहीं,
मुझे एक हाथ से दुसरे हाथ
बेचा जा रहा… ..!
शायद मैं अंतिम साँस की लड़ी तक
दहेज-गुत्थी ही सुलझाऊँ,
क्या पाप किया था बेटी-जात ने,
जो खुद की बेटी के लिए भी मैं,
दहेज ही फिर से जुटाऊँ !!
By, सुरभी आनंद !!
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