दुर्गा जा रही है
“दुर्गा जा रही है” उस सोच के बारे में है, जिसमें नौ दिनों से हलचल थी, और आज दसवीं का दिन आ गया, इसलिए सभी बहामा्ंड जीव विलाप कर रहे है, सभी प्रकृति आज झूठी लग रही है, सभी पूजन सामग्री में आज वो बात नहीं, जो नौ दिनों से दुर्गा के लिए मुस्करा रहे थे, मैं भी इन सबकीं कंर्दन की आवाज सुन चीख पड़ी कि, ऐ दुर्गा तू क्यों जा रही है, फिर से तुमने हमें क्यों प्रतीक्षारत कर दिया!
कलरव ध्वनियों ने गूँज उठाया
जगत-जीव द्वंद बनाने का
हवन की खुशबू तेरी ओर से आई
मुझे अनुभव जगाने का
कहीं चावल, कहीं गुग्गुल, कहीं पुष्प
सब बिखरे हैं, तेरे विलाप में
कंर्दन की आवाज सुन
मेरी भाव-भंगिमाएं चीख पड़ी
तू जा रही है… (विस्मयता)
आज ज्योत की आजमाइशें
तेरे मुखड़े-पे न चमकीं
अँधरियाएँ तेल की बानगी में
वो दम लें सिसकीं
उज्जवलित पुष्प भी तेरी छटा में
वो सुगंध न बिखेर सकीं
पल्लव जल भी तेरी अदा में
वो तर्पण न मुस्करा सकीं
तू जा रही है, स्पंदन-स्पृश को
मातम-तन्मयता दिखाकर
तात्विक-परिभाषा को मुर्ख बनाकर
सूचीभेद-शेष को अनहद-नाद सुनाकर
तेरे जाने से…
ब्रह्मांड जीव अब मनहर निनादित न होगा
संपूर्ण जगत का सृजन न होगा
तेरे कदम ने हमारे कदमों पर
मृत-चित्त छाप छोड़ दिया
हे स्पृंदा, हे विलक्षणा, हे दुर्गावासिनी
तुमने तो हमें प्रतीक्षारत कर दिया… !
By, सुरभी आनंद
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