कहानी - मन की पीड़ा

उस दिन भी इतवार था. अब न वह था न उस की मां, न उस के पिता न पंचम की मां और न ही पंचम के पिता. केवल थी तो पंचम. इतवार को कुछ भी बुरा नहीं कहूंगी, जो होना था सो हो गया. न जाने कितने इतवारों को उन का कलेजा बाहर निकलनिकल कर आया होगा. हर इतवार कैक्टस की भांति चुभता था तब. एक दूसरे से अधिक. मानो उन में होड़ लगी हो. यह बात काफी पहले की है. शनिवार की रात थी. 11 बज चुके थे. घर के सभी सदस्य सोने की तैयारी में जुटे थे. आज पंचम भी चैन से सोने वाली थी. खुश थी क्योंकि कल उस बूढ़े खूसट हितेश अंकल के यहां रियाज के लिए नहीं जाना पड़ेगा. हितेश साहब एक मशहूर मंच गायक थे. वे अधिकतर बड़ीबड़ी पार्टियों, राजनीतिक सभाओं में गाया करते थे. उन्हें रफीजी तथा मुकेशजी तो नहीं कह सकते लेकिन दिल्ली में वे काफी प्रसिद्ध थे. पंचम बिस्तर पर लेटीलेटी यही सोच रही थी. कम से कम कल तो अरमान के लिए दुखदाई नहीं होगा. उसे अपनी मां की जलीकटी बातें नहीं सुननी पड़ेंगी. अरमान को लोधी टूम जा कर नहीं बैठना पड़ेगा. खुद से अधिक उस का मन अरमान के लिए रोता था. पंचम सोच ही रही थी कि सामने मां हाथ में घड़ी लिए खड़ी थीं. मां ने घड़ी का अलार्म लगाते हुए कहा, ‘पंचम, लो, रख लो सिरहाने.’

पंचम की छोटी बहन सप्तक झट से बोली, ‘कल हितेश अंकल के घर तो जाना नहीं, फिर अलार्म क्यों?’ ‘मानती हूं, पर इस से रियाज तो नहीं बंद हो जाता?’ मां ने तुरंत उत्तर दिया. ‘दीदी भी न, हफ्ते में एक इतवार ही तो मिलता है देर तक सोने के लिए. बस, शुरू हो जाती हैं सुबहसुबह तानसेन की औलाद की भांति,’ सप्तक खीज कर बोली. ‘तू क्यों चहक रही है. तू तो वैसे भी भांग पी कर सोती है. तुझे जगाने के लिए अलार्म तो क्या ढोल भी कम है.’

‘बड़बड़ मत कर, कान में रुई डाल कर सो जा. तू क्या सोचती है दीदी का मन नहीं करता देर तक सोने का. मां का पता है न और उन का संगीत के प्रति जनून भी. तभी तो हम सभी के नामों में भी सुर और ताल बसे हैं. बेकार की बातें क्यों करती रहती हो? ह्वाई डिसरिस्पैक्ट टू संगीत, समझी? ओके, मैं तो चला बाहर सोने,’ भाई कोमल ने पल्ला झाड़ते हुए व्यंग्यपूर्वक कहा.

‘प्लीज ममा, मत लगाओ अलार्म. घड़ी अपने कमरे में रख लो, आप ही जगा देना दीदी को?’ सप्तक ने मां से विनती करते हुए कहा. ‘मां? मां जगाएगी? आज तक कभी देखा है मां को जल्दी उठते? मां ने कभी किसी का नाश्ता तक तो बनाया नहीं. दीदी न होतीं तो कभी नाश्ता नहीं मिलता, समझी?’  कोमल, पंचम की पैरवी करता बाहर चला गया. इतवार को हितेश साहब के घर न जाने की सोच से पंचम की नींद उड़ गई. लेटेलेटे पंचम उस दिन को कोसने लगी जिस दिन ब्लौक में मिसेज तोषी के यहां  एक धार्मिक आयोजन में उस ने एक गीत गाया था. न उस दिन गीत गाती, न ही बूढ़े खूसट हितेश साहब की नजरों में आती. कैसे लोगों से पूछपूछ कर ढूंढ़ ही लिया था. हितेश साहब ने मां को. कितनी विनम्रता से हाथ जोड़ते हुए वे बोले, ‘कल्याणीजी, आप की बेटी पंचम की बड़ी सुरीली आवाज है. शहद में डूबे स्वरों सी मिठास है गले में उस के. जैसा नाम वैसे ही सधे सुर निकलते हैं गले से.’

‘आप ने ठीक ही कहा, हितेश साहब. तोहफे के साथसाथ सामर्थ्य भी है. उसे संवारनेउभारने के लिए रियाज बहुत जरूरी है. मेरी तो यही कोशिश रहती है कि वह अधिक से अधिक रियाज करे. बच्चों को कुछ बनाने के लिए मांबाप को भी मेहनत करनी पड़ती है,’ कल्याणी ने बड़े स्वाभिमान से कहा. ‘यह तो आप सही कहती हैं. गुस्ताखी के लिए माफी चाहता हूं. कल्याणीजी, बात ऐसी है, अगले वर्ष मोतीबाग में एक गीतसंगीत का भव्य कार्यक्रम रखा गया है. अगर पंचम वहां कुछ गा दे तो, उसे प्रचार भी मिल जाएगा और उस का उत्साह भी बढ़ेगा. आप का क्या विचार है?’ ‘हांहां, क्यों नहीं, आप ठीक कहते हैं,’ कल्याणी ने पंचम से बिना पूछे हां कर दी. पंचम को गाने में कोई आपत्ति नहीं थी. अगर आपत्ति थी तो वह हितेश साहब के घर जा कर रियाज करने में.

मां बहुत खुश थीं, मानो ‘जैकपौट’ निकल आया हो. वे तो बचपन से ही अपने लिए एक सफल गीतकार बनने का सपना देखती आई थीं. उन्हें ऐसा एहसास हुआ मानो उन के पार्श्व गायिका बनने के स्वप्न की यह पहली सीढ़ी थी. समय रफ्तार से बढ़ता गया. न चाहते हुए भी महीने में एक बार पंचम को मंच पर हितेश साहब का साथ देना ही पड़ता. उस के लिए रियाज और अभ्यास भी आवश्यक था. मां कल्याणी बहुत खुश थीं. उन्हें एहसास होता, मानो पंचम के गले से उन्हीं के स्वर निकल रहे हों. पापा के दबाव से परीक्षा के दिनों में पंचम को मंच और रियाज से 2 महीने का अवकाश मिल जाता. किंतु समय बहुत क्रूर है, उस की सूई कहां रुकती है. फिर वह इतवार आ जाता जब उसे हितेश साहब के यहां रियाज के लिए जाना पड़ता.

उस दिन रियाज के बाद जब हितेश साहब पंचम को घर छोड़ने आए तो उन्होंने मां से हिचकिचाते हुए पूछा, ‘कल्याणीजी, आप को पंचम को दिल्ली से बाहर भेजने में कोई आपत्ति तो नहीं?’ बात समाप्त करने से पहले उन्होंने अनुबंध उन के सामने रख दिया. कल्याणीजी ने बिजली की कौंध की तरह झट से अनुबंध  पर हस्ताक्षर कर दिए. दिल्ली से बाहर फरीदकोट में पंचम का यह पहला समारोह था. नाम तक न सुना था कभी. बस, सांत्वना यही थी कि वहां किसी परिचित व्यक्ति के मिलने की संभावना नहीं थी. सालाना परीक्षा के कारण कुछ दिन स्कूल में छुट्टी थी. किंतु पंचम का हितेश साहब के यहां रियाज का सिलसिला जारी रहा. अब सप्ताह में 2 बार. मां की इन हरकतों पर गुस्सा आने पर अकसर पंचम कह देती, ‘मां, वहां हितेश साहब की लड़की बैठ कर परीक्षा की तैयारी करती है और मैं उस के पापा के साथ रियाज करती हूं, प्रेम गीत गाती हूं, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता?’

‘बेटा पंचम, तुझ में जो हुनर है वह उस में थोड़े ही है. इस में तेरा भी भला है. पंचम सोचने लगी, मां नहीं जानती थीं कि उन के इस जनून में मेरा और अरमान का हरेक इतवार बरबाद होता है. मेरे वहां जाने से वह भी इतवार को परीक्षा की तैयारी नहीं कर सकता. मां यह अच्छी तरह जानती हैं कि अरमान की खिड़की से हितेश अंकल का घर साफसाफ दिखाई देता है. फिर क्यों? बचपन से अरमान और पंचम एक अटूट अनकहे प्रेमबंधन में बंधे थे. अरमान के घर वाले बहुत पुराने विचारों के थे, उन्हें पंचम के गानेबजाने से सख्त नफरत थी. पंचम का ‘स’ लगते ही अरमान जोर से खिड़की बंद कर देता. वह अकसर अपनी मां की जलीकटी बातों से बचने के लिए लोधी गार्डन के उस पेड़ के नीचे जा बैठता जहां वे दोनों जंगलजलेबियां बीनबीन कर खाते और घंटों बातें करते रहते थे. अरमान के कुछ न कहने पर भी पंचम उस की कहीअनकही बातें उस की आंखों में साफ पढ़ लेती.

कल्याणीजी के लिए नाम और प्रसिद्धि एक चुनौती बन चुकी थी. उसे वे किसी भी तरह पाना चाहती थीं. उस रात कल्याणी ने पंचम के पापा से फरीदकोट का जिक्र किया. पापा भड़क उठे, ‘मैं हरगिज नहीं चाहता, लड़की शहर से बाहर जाए. मना कर दो उस मरासी को. क्यों बरबाद करने पर तुली हो मेरी बेटी के भविष्य को.’ ‘यह कैसे हो सकता है? अब तो नामुमकिन है,’ मां ने दृढ़ता से कहा. मां के लिए पापा के विरोध की कोई महत्ता नहीं थी. ‘कल्याणी, कान खोल कर सुन लो, मुझ से पैसों की आशा कतई मत करना.’ ‘मांग कौन रहा है. वैसे भी आप के पास पैसे हैं ही कहां? आप की समस्या मेरी समझ से बाहर है. लोग मेरी तारीफ करने का कोई मौका नहीं चूकते, कहते हैं, हिम्मत वाली हैं कल्याणीजी आप. जितनी मेहनत, आप करती हैं बच्ची पर अभी तक तो कोई मां ऐसी नहीं देखी. और एक आप हैं, तारीफ तो क्या, साथ तक नहीं देते. मांबाप की कुर्बानियों से ही बच्चे बनते हैं. पैदा करना ही काफी नहीं है. अगर बेटी ने चार पैसे भी कमा लिए तो भला तो हमारा ही होगा. घर की स्थिति सुधर जाएगी. ऐसी बातें आप की समझ से बाहर हैं. हमारी पंचम में तो गुण कूटकूट कर भरे हुए हैं. अगर कहीं मेरी मां ने मेरे सपने अपने समझे होते, बापूजी के झगड़ों को नजरअंदाज कर मेरे साथ खड़ी होतीं, तो आज मेरे सपने यथार्थ में बदल जाते. फिर मैं आप की नहीं, किसी बड़े स्टार की ब्याहता होती. धन, मान, सम्मान सभी होते, करोड़ों में खेलती, कोठियों में रहती.’

‘अभी कौन सी देर हुई है. मैं ने रोका है क्या?’

पंचम बिस्तर पर पड़ी उन की नोंकझोक सुन रही थी. वह दिन भी आ गया. गाड़ी नई दिल्ली स्टेशन से सुबह 5 बजे चलती थी. समारोह रात को था. फरीदकोट पहुंचते ही बड़ी आवभगत हुई. सफेद चमचमाती हुई कार लेने आई. फाइवस्टार होटल में ठहराया गया. होटल तो पंचम को स्वप्नमहल सा लग रहा था. सफेदसफेद उजली चादरें, टीवी, डनलप के गद्दे वाले पलंग, शीशे सा चमकता बाथरूम, बड़ीबड़ी खिड़कियां, बिस्तर से मैचिंग परदे. उत्साह के स्थान पर पंचम को कमरे में लगे आईने में बारबार अरमान का उदास चेहरा दिखाई दे रहा था. प्रोग्राम प्राइवेट नहीं, राजनीतिक था. पहले देशभक्ति, उस के बाद पार्टीबाजी के व्याख्यान होने थे. बाद में संगीत. तालियों की गड़गड़ाहट बता रही थी कि लोगों को संगीत भाया था. लोगों ने बहुत पैसा लुटाया उस पर. जिस से पंचम को बहुत नफरत थी. समारोह के बाद विशेष अतिथियों के लिए खाने की व्यवस्था थी.

‘बहनजी, क्या गला पाया है आप की बेटी ने, बहुत दूर तक जाएगी. स्वरमयी गला और खूबसूरत दोनों ही विरासत में पाए हैं. आप तो और भी सुरीला गाती होंगी’, एक महाशय ने व्यंग्यपूर्वक कहा. ‘शुक्रिया’, कह कर कल्याणीजी पंखहीन सातवें आसमान पर उड़ने लगीं. वे यह बताने से कभी न चूकती थीं कि बच्चों की सफलता में मांबाप का पहला हाथ होता है. वहां भिन्नभिन्न प्रकार के पकवानों की भरमार थी. लोग खाने पर ऐसे टूटे जैसे 6 महीने से भूखे हों. भोजन के बाद पान वाला मंडराने लगा.

‘मैडम, पान...?’ उस ने पंचम से पूछा.

‘नहीं, शुक्रिया, ये मेमसाहब पान नहीं खातीं,’ हितेश साहब ने उचक कर कहा. फिर पंचम की ओर मुड़ कर बोले, ‘पंचम, भूले से भी किसी के हाथ से पान मत ले लेना. हजारों सज्जनों में दुश्मन भी छिपा होता है. ईर्ष्या से पान में ऐसी चीज मिला देते हैं जिस से गला सदा के लिए खत्म हो जाता है.’ पंचम ने स्वीकृति में सिर हिला दिया. हितेश साहब तो वहां से चले गए, थोड़ी देर बाद पान वाला फिर वहां  आ धमका. ‘मैडम, बनारसी पान है, ले लीजिए.’ उस से पीछा छुड़ाने के लिए पंचम ने एक पान उठा कर पेपर नैपकिन में लपेट कर अपने पर्स में रख लिया. पार्टी समाप्त होतेहोते 2 बज चुके थे. पंचम सोचने लगी, शुक्र है कल दोपहर की वापसी है. कल्याणीजी बहुत उचक रही थीं. मानो हितेश साहब ने उन के हाथ में नोट छापने वाली मशीन थमा दी हो. उन्हें लखपति बनने का सपना पूरा होता दिखाई दे रहा था. दिल्ली पहुंचते ही पंचम ने चैन की सांस ली. परीक्षाएं सिर पर थीं. जब तक परीक्षाएं समाप्त नहीं हो जातीं तब तक कई इतवारों की छुट्टी. पंचम खुश थी कि अब तो अरमान भी घर बैठ अपनी परीक्षा की तैयारी कर सकता है.

परीक्षा समाप्त होते ही वह अरमान से मिलने लोधीटूम पहुंची. अरमान उसी पेड़ के नीचे प्रतीक्षा कर रहा था, जहां दोनों बचपन से बैठते आए थे. कुछ क्षण के लिए दोनों अपनेअपने बुलबुलों में बंद रहे. अरमान सिर झुकाए जमीन पर टेढ़ीमेढ़ी लकीरें खींचते हुए बुदबुदाया, ‘क्यों पंचम, बताने के काबिल नहीं समझा...क्यों?’

‘क्या बताती, मां ने बिना बताए ही अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिए थे. आगे से ऐसी बात नहीं होगी. मुसकराओ,’ उस ने शरारत से कहा.

अरमान थोड़ा मुसकराया. पंचम ने कहा, ‘अब कुछ और बताती हूं. सुनो, अरमान, अगले महीने एक बहुत बड़ा समारोह है. कुछ दिन के लिए मुझे मुंबई जाना पड़ेगा.’

‘पंचम, तुम तो जानती हो, व्यक्तिगत रूप से मुझे तुम्हारे संगीत से कोई समस्या नहीं. तुम से प्यार करता हूं. तुम्हारे तो आसपास होने मात्र से मेरे भीतर उत्तेजना का संचार होने लगता है. मैं अपने तमाम दुख भूल जाता हूं. प्रेम की सरिता में बहने लगता हूं. एकाएक हितेश साहब की खिड़की से हारमोनियम का स्वर सुनते ही तमाम प्रेम भावनाओं का स्थान ईर्ष्या, द्वेष और क्रोध ले लेते हैं. बारबार घड़ी की सूई देखता हूं. यहां तक कि हितेश साहब से जुड़ी हर चीज बुरी लगती है. उन के घर के आगे से निकलने में तकलीफ होती है. फिर अपनी नादानी पर बहुत हंसता हूं.’ ‘अरमान, तुम से क्या छिपा है. यह तो मैं ही जानती हूं कि मंच पर गाने में मेरा कितना दिल दुखता है. हर इतवार को कलेजा बाहर आता है. हर गाने पर आपत्ति होती है. हर पंक्ति में हर शब्द शूल की तरह चुभता है. जब उस बूढ़े खूसट के साथ प्रेमगीत गाना पड़ता है तो वह कहता है मेरी ओर देख कर गाओ, भाव से गाओ, चेहरे पर मुसकान ला कर गाओ, उस वक्त मुसकान व भाव सभी क्रोध में परिवर्तित हो जाते हैं. स्टेज पर मैं नहीं, एक सांस लेता रोबोट बैठा होता है. तुम कहते हो, कल्पना में मुझे सामने बैठा लिया करो. तुम्हीं बताओ, एक 50 वर्ष के शरीर से मैं 20 वर्ष के युवा की कल्पना कैसे कर सकती हूं?’

‘मां को समझाने का प्रयत्न करो, तुम हितेश साहब के घर में नहीं, अपने घर में रियाज करना चाहती हो.’

‘खुद को हलाल करवाना है क्या? तुम्हें क्या बताऊं, जबजब रियाज के लिए जाती हूं, खिड़की से मुझे सब दिखाई और सुनाई देता है. जब तुम्हारी मां मेरे एकएक सुर के साथ अपनी पूरी आवाज से सौसौ कटाक्ष तुम्हारी ओर फेंकती हैं, ‘देखया कंजरियां दे कम. ओनू घर ले आया तो तेरी भैन नाल कौन व्याह करेगा. घर घर नहीं रहेगा.’ इन कटाक्षों से बचने के लिए तुम घर से बाहर चले जाते हो. मेरे कारण हर इतवार को तुम्हें यह जहर पीना पड़ता है. फिर कहते हो तुम्हें मेरे संगीत से कोई आपत्ति नहीं. किस मिट्टी के बने हो तुम? सब कुछ चुपचाप सह लेते हो. किंतु तकलीफ तो मुझे होती है.’

‘मेरी जान, समझो, मांबाप पर आश्रित हूं. न चाहते हुए भी डाक्टरी पूरी करनी है. बाऊजी का सपना पूरा करना है. वे फीस देते हैं. मैं हर शनिवार की रात को रोकने के प्रयास में रात बिता देता हूं.’

‘रात भी कहीं रुकती है क्या?’

‘सोच तो सकता हूं. पंचम, चलो घर  चलते हैं. अंधेरा होने को है.’

उस रात पंचम की आंखों में नींद कहां. रातभर तानेबाने बुनती रही. कैसे पीछा छुड़ाया जाए हितेश साहब से. मां की पढ़ाई छुड़ाने की धमकियों से डर लगता है. मांपापा की नोंकझोंक रोज का काम है. पापा को भी पसंद नहीं. जब पापा मां को डांटते हैं, मां उन पर हावी होने लगती हैं. कहती हैं, ‘आप को तो बच्चों के भविष्य में कोई दिलचस्पी नहीं. एक दिन देखना, हमारी पंचम हिंदुस्तान की मशहूर गायिका बनेगी. अखबारों में नाम छपेगा. बच्चाबच्चा उस के गीत गुनगुनाएगा. सब कहेंगे, कल्याणी की बेटी है, सभी का उद्धार होगा.’ ‘कल्याणी, क्यों बच्ची के पीछे पड़ी रहती हो? जीने दो उसे. मत छीनो उस का बचपन. सो लेने दो पूरी नींद उसे.’

‘आप के पैसों से तो कभी पूरा नहीं पड़ा.’

‘सारी तनख्वाह तो ला कर तुम्हें दे देता हूं.’

‘जब से ब्याह कर आई हूं, सर्दियों में एक गरम कोट के लिए तरस गई हूं. लड़की पैसे कमाती है, उसे कपड़े भी तो अच्छे चाहिए. पिछले समारोह के पैसों से पंचम के लिए गरम कोट बनवाया था. कभीकभार वह कोट मैं भी पहन लेती हूं. लोग कहते हैं, कल्याणी, यह कोट तुम पर जंचता है.’

पंचम के पापा ने कल्याणी की बातों को हवा में उड़ा दिया. उन्होंने भी आसान रास्ता अपनाया है. ऐसी स्थिति में बड़बड़ाते हुए वे घर से बाहर चले जाते हैं. रात का समय था. इस तानाकशी से बचने के लिए बाहर भी नहीं जा सकते थे. बिस्तर पर पड़ी पंचम उन की बातों का आनंद लेते मन ही मन में बड़बड़ा रही थी, ‘कोट की बात करती हो मां, नाप तो अपना ही दिया था. कपड़ा, रंग और स्टाइल भी खुद ही चुना था. सब से कहती हैं पंचम के लिए बनवाया है.’ यही सोचतेसोचते उस की आंख लग गई. सुबह होते ही हितेश साहब का टैलीफोन आया. आज रियाज नहीं होगा. आज पंचम को सुकून था. उस का मन शांत था. कितना हलकापन था दिल पर. वह खुश थी. अपने तथा अरमान के लिए वह यह मनाती कि प्रकृति कुछ ऐसा हो जाए कि मंच से छुट्टी मिल जाए. एक इतवार की छुट्टी है तो क्या? सप्ताह के सभी दिनों से जल्दी आ टपकता है यह इतवार. शनिवार की रात होते ही वह तिलतिल मरने लगती थी. घर के सभी सदस्य चैन से सोए थे. मां खुश थीं. इतवार की तैयारी में लगी थीं. चुपके से मां ने पंचम के सिरहाने घड़ी रख दी. उस ने जरा सी आंख खोली, और सोचने लगी, फिर सुबह 4 बजे उठना पड़ेगा. हितेश साहब के घर जाने से पहले रियाज भी करना था. वह उलझन में थी क्योंकि कुछ दिन से मां मुझ पर बहुत स्नेह उड़ेल रही थीं. हितेश साहब ने मेरे साथ मां को भी बुलाया है. शायद किसी अनुबंध पर हस्ताक्षर करने होंगे. मां खुश तो ऐसे थीं जैसे स्वयं ही पार्श्व गायिका बन गई हों.

सुबह नाश्ते के बाद पंचम और कल्याणी हितेश साहब के घर पहुंचे. वही हुआ जिस का संदेह था. अनुबंध पर हस्ताक्षर करवाने के बाद हितेश साहब बोले, ‘सगाई का उत्सव है. गीत प्रेमभाव से गाना. तगड़ी आसामी है. बलैया भी खूब लेंगे. शायद अगला कौन्ट्रैक्ट भी मिल जाए. नोट लुटाएंगे.’ पंचम हितेश साहब की ओर देखती रही, जिन के बच्चे पंचम से उम्र में कहीं बड़े हैं. वह खूंटे से बंधी रंभाती गाय थी जो खूंटे को तोड़ कर भागना चाहती थी. रियाज के बाद कल्याणीजी मुसकराती हुई बोलीं, ‘चलो पंचम, मुंबई जाने की तैयारी भी करनी है.’

‘मुंबई, कब?’ पंचम ने विस्मय और कुतूहल से  पूछा.

घर पहुंचते ही कल्याणीजी तैयारियों में जुट गईं. पापा सिर्फ  रेलवे स्टेशन तक ही छोड़ने गए. सगाई के उत्सव में जानेमाने लोगों के साथसाथ संगीत जगत की जानीमानी हस्तियां भी पधारीं. कल्याणी मन ही मन सोचती रही कि किसी संगीत डायरैक्टर की नजर पंचम की आवाज पर पड़ जाए तो लौटरी निकल जाएगी. बधाई के गीतों के बाद फरमाइशी गीतों का दौर चला. कुछ सभ्य और कुछ असभ्य. कुछ शील, कुछ अश्लील. सुबह के 5 बज गए. अतिथियों के बीच बिजनैस कार्डों का आदानप्रदान तथा बातचीत का सिलसिला चलता रहा. व्यापार जो ठहरा. कल्याणी बड़ेबड़े लोगों से मिल कर खुशी के साथ उन्हीं के स्तर पर झूमने लगीं. ‘वाह खूब गाया हितेश साहब, क्या खोज है आप की? कहां से ढूंढ़ी यह लाजबाव बाला?’

‘हमारे यहां भी कभी दर्शन दीजिएगा,’ दूसरे महाशय ने बड़े मसखरे लहजे में कहा.

‘क्यों नहीं, जनाब, आप बुलाएं और हम न आएं. आवाज तो दे कर देखिए,’ हितेश साहब ने उल्लास से कहा.

‘हां, इस फुलझड़ी को लाना मत भूलिएगा.’

पंचम दूर खड़ी यह सब देख और सुन रही थी. ‘नमस्ते कल्याणीजी, हार्दिक बधाई हो. क्या गला पाया है आप की बेटी ने. क्या कोमल गंधार लगाए. वाह, ऐसे ही गाती रही तो एक दिन बहुत ऊंचाइयों तक पहुंचेगी,’ एक भद्र महिला इतना कह कर चली गई. कल्याणीजी को आसमान करीब दिखने लगा. सामने खड़ी 3 महिलाओं के झुंड में से एक बोली, ‘लानत है ऐसी मां पर, बेटी है उस की? कैसे गवा रही है कोठेवालियों की तरह. इतनी सुंदर लड़की है, ऐसे ही गाती रही तो बस मंच के लिए ही रह जाएगी.’

दूसरी बोली, ‘उम्र की छोटी है तो क्या? देखो न गला कितना सुरीला और सधा है.’ दूसरी ओर पुरुषों की टोली में से एक सज्जन बोले, ‘देखो तो सही, बूढ़ा कहां से ले आया फुलझड़ी को. इस का तो जैकपौट ही निकल आया है. मैं तो उस से कहने वाला हूं, जब जी भर जाए तो इधर भेज देना,’ उस ने लचीली मुसकराहट से कहा. दूर खड़ी पंचम पर ऐसी बातें हथौड़े सी बौछार कर रही थीं. उस ने  सोच लिया था, ऐसी बकवास, घटिया सोच अब और नहीं बरदाश्त कर सकती. दूसरे दिन दिल्ली की वापसी थी. कल्याणी भी बहुत खुश थीं. बेटी अच्छा कमाने लगी थी. घर पहुंचते ही दूसरे दिन उसे अरमान से मिलना था. आज अरमान का चेहरा बहुत उतरा था. उल्लास जाने कहां गुम हो गया था. वह बेसुध अपना सिर घुटनों पर टिकाए, जमीन को कुरेद रहा था. उसे पंचम के आने का एहसास तक न हुआ. पंचम ने स्नेह से उसे छू कर अपनी उपस्थिति का एहसास दिलाया.

‘पंचम, तुम!’ वह चौंक कर बोला. अरमान के भीतर की पीड़ा की प्रतिच्छाया उस की आंखों में झलक रही थी. स्थिति  की नजाकत को देखते वह कुछ क्षण चुप रही. कुछ देर बाद उस ने गहरी सांस ले कर मुंबई के उत्सव का प्रसंग छेड़ा. अरमान की नजरें न उठीं. वह जमीन कुरेदता रहा. मिट्टी पर गिरते आंसू देख पंचम का मन रेशारेशा हो गया. पंचम के आग्रह करने पर वह प्यार से उदासीन स्वर से बोला, ‘पंचम, मेरी पंचू, तुम्हें दोष नहीं देता, मुझे ही मांबाप को समझाना नहीं आया. इतना बेबस, लाचार मैं ने स्वयं को कभी नहीं पाया. तुम चिंता मत करो. प्रेम करता हूं तुम्हें, तुम तो मेरे खून में बसी हो. तुम्हारी तो कल्पनामात्र से ही अभिभूत हो जाता हूं. अकसर भावनाओं को काबू में रखने के लिए अपनेआप से लड़ता हूं. पलपल, क्षणक्षण तुम्हें प्रेम करता हूं चाहे ठिठुरा देने वाली निष्ठुर सर्दी हो या गरमी की तेज ऊष्मा. जब तुम से मिलता हूं तो मेरी खुशी का ओरछोर नहीं दिखता. मैं दमकने लगता हूं. खुशी से उड़ताउड़ता बादलों तक पहुंच जाता हूं. मांबाप के तीखे बाणों की बौछार तनमन को घायल करती है, तब कल्पना से यथार्थ में आ जाता हूं. थक गया हूं पैरवी करतेकरते. बाऊजी डाक्टरी छुड़ाने की धमकी देते हैं. मैं जानता हूं, गरीबी में डाक्टरी पढ़ाना कितना कठिन है. और बहनभाई भी तो हैं. मेरी मां सुबहशाम एक ही राग अलापती रहती हैं-इक बूटा लाया सी, सोचया सी, छांवे बैठांगे, पुतर तां कंजरी दिल दे बैठा. घर आ के और ऐसे घर नूं बी कंजरखाना बना देवेगी.

‘इंतजार है डाक्टर बनने का. बस, एक बार डाक्टर बन जाऊं. सब ठीक हो जाएगा. डाक्टर तो हर हाल में बनना है. कैसे तोड़ दूं बाऊजी के बचपन का सपना? जो वे पिछले 45 वर्षों से देखते आए हैं. बाऊजी की कुर्बानियों के ऋण में दबा हूं.’

दोनों एकदूसरे की विवशता पर रोते रहे. पंचम स्वयं को संभालती बोली,  ‘अरमान, हम दोनों एकदूसरे के पलपल, क्षणक्षण के खाते के एकएक पन्ने के विराम, अर्द्धविराम, चंद्रबिंदु तथा पंक्ति से वाकिफ हैं, हमारा तो सबकुछ सांझा है. कैसे बताऊं तुम्हें अरमान? तिलतिल मरती हूं जब हर इतवार को हितेश साहब के यहां रियाज के लिए जाना पड़ता है. मन में ऐसा ज्वालामुखी उठता है, लगता है मानो क्षण में भस्म हो जाऊंगी. तुम तो समझते हो कैसे तोड़ दूं अपनी मां का सपना एक पार्श्वगायिका बनने का? जो वे बचपन से संजोती आई हैं. तुम तो जानते हो, मेरी मां के सामने पापा भी आवाज नहीं उठा सकते. मैं चुपचाप भावनाओं, इच्छाओं का आंसुओं से दमन कर देती हूं.’

कुछ देर के लिए दोनों में मौन संवाद चलता रहा.

‘पंचम, अंधेरा होने लगा है. मैं नहीं चाहता तुम अंधेरे में अकेली घर जाओ. चलते हैं,’ अरमान ने मौन को भंग करते हुए कहा. दोनों अपनेअपने कंधों पर एकदूसरे के आंसुओं का बोझ लिए भारी कदमों से घर की ओर चल दिए. निरंतर पंचम को एक ही प्रश्न कोचता रहा. आज ऐसा क्या हो गया है? पहले तो जब वह अरमान से मिल कर आती थी तो खुद को चांद के चारों ओर घूमती चांदनी महसूस करती थी. एकांत में सदा वह साथ होता था. अरमान उसे देख कर जब प्रेम की बातें करता तो वह आलोक के गंध में घिरती चली जाती जिस का पूरा वजूद पगली, मनचली पवन में बदल जाता. पांव धरती से बेदखल होन लगते और ब्रह्मांड में उड़ने लगती. इतना बेबस तो उस ने खुद को कभी नहीं पाया. आज की रात बहुत भारी थी. पंचम के मस्तिष्क का द्वंद्व बढ़ता जा रहा था.

आज पंचम का मन विद्रोह कर बैठा था. आज उस ने इन बंधनों को तोड़ कर स्वयं मुक्त होने का निर्णय लिया. कितनी बार सोचा, काश, वह किसी और की बेटी होती? कई बार सोचा, घर छोड़ दूं. संबंध कभी टूट पाते हैं क्या? कैसी शक्तिशाली प्रवृत्ति होती है मानव की. जैसी भी हो, मानव उस में जी लेता है. जीवनरूपी रेल चलती रहती है. उस ने ठान लिया था, अगर आज कुछ नहीं कर पाई तो कभी नहीं कर पाएगी. घर पहुंचते ही वह अपने कमरे का दरवाजा बंद कर खुद को कोसने लगी, ‘अपना दर्द तो जैसेतैसे सह लेती हूं पर अरमान का दर्द नहीं सहा जाता. आज मैं किस मोड़ पर खड़ी हूं. मेरे जिस मधुर गले को मेरी खूबी समझा जाता है आज वही मेरे लिए मुसीबत बन गया है. मैं इस अनमोल धरोहर को संभाल नहीं पाऊंगी.’ पंचम अपने तानपूरे से लिपट कर खूब रोई. रोतेरोते उस ने तानपूरे के तारों को तोड़ डाला. आज पंचम के अंदर की पीड़ा की प्रतिच्छाया उस की आंखों में थरथराने लगी. उस के स्वर में घिरता हुआ शाम का अंधेरा उतर आया. पर्स में रखा पान मुंह में डाल हाथ जोड़ कर बोली, ‘माफ करना मां, आप का सपना पूरा न कर पाई और हमेशा के लिए मैं गीतसंगीत की दुनिया को अलविदा कह रही हूं.’

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