कहानी - देह और आत्मा

“उसे शायना की कहानी पता चल गई थी. उसने फिर भी मुझसे कभी स्पष्टीकरण नहीं मांगा. क्या मांगती भला जो आदमी इतने वर्षों तक उसके साथ रहा… ज़िन्दगी की हर धूप-छांव में अटूट आस्था के साथ वो जिसके क़दम-से-क़दम मिलाती रही, वही व्यक्ति आज जीवन के अंतिम पड़ाव तक आते-आते…”
जब मैंने उसे पहली बार देखा तो देखता ही रह गया. बिल्कुल दूधिया रंग, आकर्षक कद-काठी, पान की आकृति वाला चेहरा… ठुड्डी पर एक छोटा-सा मस्सा… बोलती आंखें और थिरकते होंठ. शायना क्या वाकई ख़ूबसूरत थी या स़िर्फ मेरी आंख़ों का भ्रम था. केबिन में बैठी वह कम्प्यूटर पर किसी प्रोडक्ट का ग्राफ़िक डिज़ाइन तैयार कर रही थी. आहुत की पीठ उसकी तरफ़ थी और आहुत की मेज़ के सामने मैं बैठा था. आहुत ने उसे आवाज़ दिया, “मिसेज़ शायना…”

शायना जैसे चौंकते से जागी, “जस्ट अऽऽ… मिनट सर…” वह अपने कम्प्यूटर स्क्रीन पर एक संतुष्टिपूर्ण नज़र डाल गहरी सांस लेते हुए अपनी कुर्सी से उठी. आहुत के बगल से होती हुई मेज़ के सामने मेरे बगल की सीट पर बैठ गई.

पिछले कई वर्षों से शायना को मैं देख रहा था, किन्तु कभी मुझे इसकी आवश्यकता नहीं हुई कि मैं उससे बात करूं. वह आहुत से काफ़ी जूनियर थी, साथ ही बला की ख़ूबसूरत और मेहनती भी. शायना की क़ाबिलियत की यदा-कदा प्रशंसा आहुत से सुनने को मिलती रहती थी.

“मिसेज़ शायना, ये मेरे मित्र अमन हैं. शायद आप इन्हें जानती हैं. इनकी फैक्ट्री इलेक्ट्रिकल कन्ट्रोल पैनल बनाती है. इन्हें अपनी कम्पनी के विज्ञापन होर्डिंग्स लगवाना है… और चार पेज का कैटलॉग भी… प्लीज़ ज़रा देख लीजिए.”

“कहिए सर!” शायना मेरी तरफ़ मुख़ातिब हुई.

मैं बोलने लगा. उसकी कजरारी आंखें मेरे चेहरे पर गड़ी थीं और मुझे लग रहा था कि मेरा ब्लडप्रेशर तेज़ी से ऊपर उठ रहा है. उसके होंठ कांपे. मुस्कुराहट की हल्की-सी रेखा उसके होंठों पर ठहर गई थी. शायद यह एक व्यवसायिक मुस्कान हो, पर यह मेरा दम निकाले दे रही थी.

दरअसल, मैं जिस फैक्ट्री में काम करता था, वह एक सामान्य-सी फैक्ट्री थी. जहां दस घण्टे की मेहनत व तमाम तनावों के बाद इतनी तनख़्वाह मिलती थी कि घर ठीक-ठाक चल रहा था. उन दस घण्टों में पसीने से लथपथ शियरिंग मशीन पर लोहे की चादर काटते हुए, प्रेस मशीन पर पैनल का शेप देते या फिर एसेम्बली शॉप में इलेक्ट्रिक डिवाइस की एसेम्बली करते… गंधाते चिरकुट से चेहरे दिखाई देते… स्त्री के नाम पर एम. डी. की स्टेनो ही थी, जो उम्र में मुझसे भी दो-चार साल बड़ी होगी. ऊपर से चेहरा इतना अनाकर्षक कि तौबा करिए…
आहुत एडवरटाइज़मेंट के शो बिजनेस में था. थोड़ा रोमांटिक. थोड़ा ग्लैमराइज़. अप्सराओं का गढ़ था उसका ऑफ़िस. मैं जब कभी अपने ठां-ठूं वाले कारखाने से मुक्ति चाहता, आहुत के पास पहुंच जाता. आहुत सदैव इन सुन्दर बालाओं से घिरा रहता. वह इस ब्रान्च का चीफ था. हालांकि हम दोनों सहपाठी थे. पच्चीस वर्षों से अपने-अपने धंधों में थे, जो बिल्कुल अलग तरह के थे. फिर भी हमारी मित्रता चल रही थी. आहुत को आज एक सफल व्यक्ति कहा जा सकता था. उसके दोनों बच्चे सेटल थे और वह अपनी पत्नी के साथ एक तनावरहित लाइफ़ जी रहा था.

मेरे एम. डी. को मालूम था आहुत से मेरी मित्रता है, शायद इसीलिए पहली बार मैं एक बिजनेस लेकर उसके पास बैठा था.

शायना को मैंने किसी तरह से अपने एडवरटाइजमेन्ट के लिए होर्डिंग्स की जगह समझायी और उसका मैटर दिया. एक चार पेज़ के कैटेलॉग के डिज़ाइन का आयडिया दिया और प्रोडक्ट डिटेल्स भी.

शायना उसी झोंके के साथ अपने कैबिन में चली गई. वह मुझे अभी भी दिखाई दे रही थी. आहुत की पीठ की तरफ़.

“कैसी लगती है?” आहुत ने फुसफुसाकर पूछा. “कौन शायना? अदभुत सुन्दर.” मैं थोड़ा चौंकते हुए बोला.

आहुत के होंठों पर फीकी-सी मुस्कान तैर गई, “बेचारी की बहुत दर्दभरी दास्तान है. एक बेटा है पांच साल का. दो वर्ष पूर्व इसके पति की मृत्यु हो गई. लीवर डैमेज था उसका. भयंकर शराबी था, मारता भी था. इसकी सुन्दरता से आक्रान्त था. फिर ससुरालवालों ने भी इसे प्रताड़ित करना शुरू कर दिया था. मेरे ऑफ़िस में आई थी तो बहुत टूटी हुई थी. इस जीवन से हताश थी. इसके पास फाइन आर्ट्स का डिप्लोमा था और कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग का भी. मेरे कम्पनी में वेकेंसी थी और इसकी नियुक्ति हो गई.”

आहुत के स्वर में कहीं भी व्यवसायिकता नहीं थी. मैंने आहुत को कभी इतना भावुक नहीं देखा था.

“हां अमन, तूने ठीक पकड़ा. सचमुच मैं इस औरत को लेकर काफ़ी गम्भीर हूं. मैं आहुत वर्मा, जो पिछले पच्चीस वर्ष से एक ऐसे व्यवसाय से जुड़ा हूं, जहां एक से बढ़कर एक चेहरे आते-जाते रहते हैं और मुझे इन चेहरों को देख कर किसी भी प्रकार की आसक्ति नहीं हुई, पर शायना….! हां! उसका चेहरा मेरी आंखों में धंसता चला गया. यार! यक़ीन करो उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व में, नख-शिख तक, कूट-कूट कर औरतपना भरा है.” आहुत भावना के आवेग में बोलता जा रहा था और मैं…?

मैं आश्‍चर्य के साथ आहुत को देखता रहा. आहुत, जो मेरी तरह जीवन का आधा शतक पार कर चुका था, टीनएज़र्स जैसे व्यवहार कर रहा था. आहुत को मैंने बहुत ध्यान से देखा. वह अभी भी सुन्दर था. पचास पार करने के बाद भी झुरियों का कहीं नामोनिशान नहीं था. उसका गोरा चेहरा अभी भी तेज़ से दपदपा रहा था. सब कुछ ठीक था, किन्तु अपनी उम्र के अन्तिम पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते आहुत को यह क्या हो गया है? फिर परिवार का भय. बेटी-बहू, बेटे, पत्नी, दामाद- हम सबसे डरते हैं, चाहे मेरे जैसा निम्न मध्यमवर्गीय हो या फिर आहुत जैसे उच्च मध्यमवर्गीय तक के स्टेटस में पहुंचने वाले लोग. सबको समाज का भय है और यही भय हमारा कवच भी है.

पर ये आहुत को क्या हो गया है, यह तो एक सुलझा हुआ आदमी है.

“कुछ बोलो यार!” आहुत मुझे चुप देखकर बोला.

“क्या शायना को तेरी चाहत मालूम है और वह भी तुझसे…?” मैं बहुत गम्भीर था.

“हां जानती है. सप्ताह में हम दो-चार बार मिलते हैं. बाहर कहीं रेस्टॉरेंट, उसके घर या सिनेमा. मुझे चाहती है तभी तो…!” आहुत अपने को सामान्य बनाने का भरसक कोशिश कर रहा था.

“और भाभी को मालूम है…?” मैंने हिचकिचाते हुए पूछा. लगा जैसे बम-विस्फोट हो गया था. होंठ लरजे, लेकिन चाहकर भी कुछ बोल न पाया वह… सिवाय सिर को ‘न’ के अंदाज़ में हिलाने के.

मामला सचमुच गम्भीर था. शायना! जो अभी तीस की भी नहीं होगी, जो दुर्घटनावश अपना पति खो चुकी थी. ससुराल से दुत्कारे जाने के बाद, उसे एक सहारे की ज़रूरत थी, जिससे वह अपना करियर व बच्चे का भविष्य संवार सके. उसने अपनी सुंदरता को हथियार बनाया और अपनी उम्र से दुगुने आदमी को निशाना. आहुत शहीद भी हो गया. सुन्दरता के आगे, मान-सम्मान, स्वाभिमान सब कुछ भूल गया था वह. शायना स़िर्फ देह थी और आहुत की एक पत्नी थी, जो एक देह से आगे भी अहमियत रखती थी. उसने उसके अंशों को नौ महीने कोख में पाला था. दो बच्चे जने थे उसने आहुत के लिए. उसकी हर सांस पर स़िर्फ आहुत का नाम लिखा था. जब उसे पता चलेगा कि वही आहुत अब बेगाना हो चुका है, तो क्या बीतेगी उस पर…?

मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. आहुत कोई बच्चा नहीं था जिसे मैं समझाता. आहुत एक ख़तरनाक गेम खेल रहा था. जिससे किसी भी क्षण उसका जीवन नष्ट हो सकता था. उसके गृहस्थ जीवन के चीथड़े उड़ सकते थे. नष्ट हो सकती थी सम्पूर्ण जीवन की संचित मान-प्रतिष्ठा.

आहुत के पास मैं और नहीं बैठ पाया. मैं लौट आया उसके ऑफ़िस से… तमाम अंदेशों को अपने मस्तिष्क से उखाड़ते और नष्ट करते हुए, पर क्या फ़ायदा…! जिन आशंकाओं को आहुत के पास छोड़ आया था, वह सच निकल गईं. हुआ वही जिस बात का डर था. उस दिन आहुत का घबराया स्वर फ़ोन पर सुना, “प्लीज़ अमन, जल्दी पहुंचो. निशा नर्सिंग होम… तुम्हारी भाभी जल गई है…”

मैं अंदर तक हिल गया. मैं नर्सिंग होम पहुंचा. भाभी पचास प्रतिशत जली थी. हाथ, सीना और थोड़ी-सी पीठ. दहशत से बेहोश थी वह… आहुत बच्चों की तरह रो रहा था.

“उसे शायना की कहानी पता चल गई थी. उसने फिर भी मुझसे कभी स्पष्टीकरण नहीं मांगा. क्या मांगती भला जो आदमी इतने वर्षों तक उसके साथ रहा… ज़िन्दगी की हर धूप-छांव में अटूट आस्था के साथ वो जिसके क़दम-से-क़दम मिलाती रही, वही व्यक्ति आज जीवन के अंतिम पड़ाव तक आते-आते… वह अंदर-ही-अंदर घुटती रही और जब घुटन की अंतरवेदना असहनीय हो गई, तो उसने स्वयं को ख़त्म कर लेना चाहा. अमन वह एक बार, स़िर्फ एक बार मुझसे स्पष्टीकरण मांग लेती तो शायद ऐसा कुछ न होता.” आहुत दु:ख व उत्तेजना के सम्मिश्रण के साथ लगातार बोले जा रहा था.

हां! यह सच था कि शायना जैसी औरतें बहुत लम्बे समय तक एक बूढ़े के कंधों के सहारे नहीं जी सकती हैं. शायना ने प्रंयास किया और अपना ट्रान्सफ़र लखनऊ ब्रान्च में करा लिया.

लखनऊ जाने के पहले उसने अपने ख़ास लोगों से कहा भी, चलो बूढ़े से तो मुक्ति मिली. उसके व्यवहार से घिन आती थी. पिता के उम्र का था और चौबीसों घण्टे देह की गंध के लिए व्याकुल रहता था.

शायना की भी कोई ग़लती नहीं थी अमन! मैं ही उम्र के इस पड़ाव में देह के चक्कर में जा फंसा. पश्‍चाताप के आंसू लिये आहुत की सूनी आंखें आईसीयू के दरवाज़े पर गड़ी हुई थीं.

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