कहानी - दोषी कौन था?
मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हमेशा चहचहाने वाली बूआ कहीं खो सी गई हैं. बातबेबात ठहाका मार कर हंसने वाली बूआ पता नहीं क्यों चुपचुप सी लग रही थीं. सौतेली बेटी के ब्याह के बाद तो उन्हें खुश होना चाहिए था, कहा करती थीं कि इस की शादी कर के तर जाऊंगी. सौतेली बेटी बूआ को सदा बोझ ही लगा करती थी.
उन के जीवन में अगर कुछ कड़वाहट थी तो वह यही थी कि वे एक दुहाजू की पत्नी हैं. मगर जहां चाह वहां राह, ससुराल आते ही बूआ ने पति को उंगलियों पर नचाना शुरू कर दिया और समझाबुझा कर सौतेली बेटी को उस के ननिहाल भेज दिया. सौत की निशानी वह बच्ची ही तो थी. जब वह चली गई तो बूआ ने चैन की सांस ली. फूफा पहलेपहल तो अपनी बेटी के लिए उदास रहे, मगर धीरेधीरे नई पत्नी के मोहपाश में सब भूल गए. बूआ कभी तीजत्योहार पर भी उसे अपने घर नहीं लाती थीं. प्रकृति ने उन की झोली में 2 बेटे डाल दिए थे. अब वे यही चाहती थीं कि पति उन्हीं में उलझे रहें, भूल से भी उन्हें सौतेली बेटी को याद नहीं करने देती थीं.
सुनने में आता था कि फूफा की बेटी मेधावी छात्रा है. ननिहाल में सारा काम संभालती है. परंतु नाना की मृत्यु के बाद मामा एक दिन उसे पिता के घर छोड़ गए. 19 बरस की युवा बहन, भाइयों के गले से भी नीचे नहीं उतरी थी. पिता ने भी पितातुल्य स्वागत नहीं किया था. मुझे याद है, उस शाम मैं भी बूआ के घर पर ही था. जैसे बूआ की हंसी पर किसी ने ताला ही लगा दिया था. मैं सोचने लगा, ‘घर की बेटी का ऐसा स्वागत?’ अनमने भाव से बूआ ने उसे अंदर वाले कमरे में बिठाया और आग्नेय दृष्टि से पति को देखा, जो अखबार में मुंह छिपाए यों अनजान बन रहे थे, मानो उन्हें इस बात से कुछ भी लेनादेना न हो. पहली बार मुझे इस सत्य पर विश्वास हुआ था कि सचमुच मां के मरते ही पिता का साया भी सिर से उठ जाता है.
‘सुनो, वे लोग इसे यहां क्यों छोड़ गए, आप ने कुछ कहा था क्या?’ बूआ ने गुस्से से पति से पूछा तो किसी अपराधी की तरह हिम्मत कर के फूफाजी ने सफाई दी, ‘इस के मामा के भी तो बेटियां हैं न… अब नाना की कमाई भी तो नहीं रही. यहीं रहेगी तो क्या बुरा है? तुम्हें काम में इस की मदद मिल जाएगी.’
‘अरे, ब्याहने को लाख, 2 लाख कहां से लाओगे? अपना तो पूरा नहीं पड़ता…’ बूआ मुझ से जब भी मिलतीं, यही कहतीं, ‘अरे गौतम, तू ही बता न कोई अच्छा सा लड़का. दानदहेज नहीं देना मुझे. किसी तरह यह ससुराल चली जाए तो मैं तर जाऊं.’ संयोग से मेरे एक मित्र का चचेरा भाई बिना दहेज के शादी करना चाहता था, आननफानन रिश्ता तय हो गया और जल्दी ही शादी भी हो गई. शादी के लगभग 2 महीने बाद मैं बूआ के घर गया तो पूछा, ‘‘क्या बात है, अब क्या परेशानी है?’’
‘‘बात क्या होगी, देवीजी वापस आ गई हैं मेरे कलेजे पर मूंग दलने. मुझे क्या पता था कि वह पागल है. ससुराल वाले बिठा गए हैं, कहते हैं, पागल को अपने ही पास रखो.’’
‘‘क्या?’’ मैं स्तब्ध रह गया.
‘‘जरा अपने दोस्त से बात तो करना,’’ बूआ का स्वर कानों में पड़ा. फिर उन्होंने सौतेली बेटी को पुकारा, ‘‘गीता, जरा चाय तो लाना, गौतम आया है.’’ गीता सिर झुकाए सामने चली आई. मैं ने तब शायद उसे पहली बार नजर भर कर देखा था. पागलपन जैसी तो कोई बात नहीं लगी. मैं सोचने लगा, ‘बूआ की गृहस्थी का बोझ संभालती, भागभाग कर सब के आदेशों का पालन करती गीता आखिर पागल कहां है?’ रिश्ता मैं ने करवाया था, इसलिए एक दिन उस के पति से मिलने चला गया. पर वह तो मुझे देखते ही भड़क उठा, ‘‘यार गौतम, तुम ने मुझ से किस बात का बदला लिया है?’’
‘‘आखिर ऐसी क्या बात है उस में, अच्छीभली तो है?’’
‘‘उस ने मुझे हाथ तक नहीं लगाने दिया. उसे सजाने के लिए तो यहां नहीं लाया था. पागल लड़की…’’ ‘‘क्या बकते हो? हाथ नहीं लगाने दिया? इस का अर्थ यह तो नहीं कि वह पागल…’’
‘‘बसबस गौतम, तलाक के कागजों पर वह हस्ताक्षर कर गई है. उस की वकालत की अब कोई जरूरत नहीं है. यह शादी तो टूटी ही समझो.’’
‘‘शादीब्याह मजाक है क्या?’’
‘‘मजाक नहीं, मगर कोई तो नाता हो, जो दोनों को बांध सके. उस ने तो कभी मुझे नजर भर कर देखा तक नहीं. बर्फ की शिला जैसी ठंडी. न कोई हावभाव, न कोई उत्साह.’’
‘‘अरे, सारी उम्र सामने है, इतनी जल्दी ऐसा निर्णय मत लो. उस गरीब पर जरा तो तरस खाओ.’’ ‘‘नहीं गौतम, मुझ से अब और इंतजार नहीं होता.’’ सचमुच एक दिन वह नाता टूट गया. एक तो सौतेली और उस पर परित्यक्ता, बूआ का सारा आक्रोश उस गरीब पर ही उतरता. उस के पिता मूक बने सब देखते रहते. मैं अकसर जाता और उस की दशा पर कुढ़ता रहता. जी चाहता कि उस से कुछ बात करूं कि आखिर क्यों वह पति से निभा नहीं पाई. चंद महीनों में ही क्यों सब समाप्त हो गया? मैं उस से बात करने की कोशिश करता, मगर वह कभी मौका ही न देती. एक दिन पता चला कि उस ने किसी स्कूल में नौकरी कर ली है, पर बूआ प्रसन्न नहीं हुईं, क्योंकि अब घर का काम उन्हें करना पड़ता था.
एक शाम औफिस से आतेआते मैं बारिश में घिर गया. स्कूटर भी खराब हो गया, इसलिए उसे मैकेनिक के पास छोड़ा और पैदल ही चल दिया. पर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, जब बसस्टैंड पर गीता को भी खड़े पाया. थोड़ी देर बाद जब अंधेरा घिर आया तो मैं ने कहा, ‘‘टैक्सी कर लेते हैं गीता, मैं तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’
‘‘जी नहीं, अभी बस आ जाएगी.’’
‘‘आओ न, कहीं चाय पीते हैं, उस के बाद…’’
‘‘इस की जरूरत नहीं. मैं चली जाऊंगी.’’
‘‘गीता, अंधेरा हो रहा है. अच्छा, चाय रहने दो. अब चलो मेरे साथ.’’ अनमनी सी वह टैक्सी में मेरे साथ आ बैठी. घर पहुंचने पर बूआ ने तीखी नजरों से हम दोनों को देखा. तीसरे ही दिन पता चला कि बूआ ने मेरे पिताजी के कानों में अच्छी तरह यह बात भर दी है कि अब मेरी शादी कर देनी चाहिए. साथ ही अपनी सहेली की बेटी भी सुझा दी थी. मां और पिताजी लड़की भी देख आए. मैं सब देखसुन रहा था, मगर पता नहीं क्यों, निर्णय नहीं ले पा रहा था. एक दिन बूआ के घर गया तो उन्हें ऊंचे स्वर में चीखते सुन सहम गया. ‘‘अरी, यही लच्छन वहां भी दिखाए होंगे, तभी तो वह वापस पटक गए तुझे. तेरी उम्र गुड्डेगुडि़यों से खेलने की है क्या?’’ और ‘छनाक’ की आवाज के साथ एक डब्बा मेरे पैरों के पास आ गिरा. तभी आंखों में विचित्र सा भाव लिए गीता ने डब्बा उठा लिया. असमंजस में पड़ा मैं दोनों को निहार रहा था.
‘‘इसे मत फेंको मां, इसे मत फेंको,’’ गीता ने करुण स्वर में कहा.
‘‘खबरदार, जो मुझे मां कहा. पागल कहीं की,’’ एक झटके से बूआ ने उस के हाथ से वह डब्बा झपटा और सामने गली में फेंक दिया. उसी पल एक स्कूटर डब्बे के ऊपर से गुजर गया. टूटे खिलौनों को देख कर गीता वहीं पछाड़ खा कर गिर पड़ी. यह दृश्य मेरे अस्तित्व को पूरी तरह हिला गया. किसी तरह गीता को उठा कर मैं ने बिस्तर पर लिटाया.
‘‘रहने दे इसे गौतम, आ, बाहर आ जा,’’ बूआ शायद नहीं चाहती थीं कि मैं उस के समीप रहूं. दूसरे दिन एक निश्चय मन में ले कर मैं गीता के स्कूल जा पहुंचा और जबरदस्ती उसे मनोवैज्ञानिक के पास ले गया. 2 घंटे तक वह अकेले में उस से बातें करता रहा. गीता का पूरा जीवन और उस के कड़वे अनुभव उस के सामने किताब की तरह खुल गए. जब वह वापस आई तब आंखें रोरो कर सूज चुकी थीं. मैं ने समीप जा कर जब उस के सिर पर हाथ रखा तो वह फिर से रो पड़ी. मुझ पर शायद वह कुछकुछ विश्वास करने लगी थी. मैं अपने साथ उसे खाना खिलाने रेस्तरां में ले गया. अपने सामने बिठा कर उसे खाना खिलाया. नन्ही सी बच्ची की तरह वह मेरी हर बात मानती गई. ‘‘मैं कल शाम तुम्हारे घर आऊंगा, गीता. डाक्टर ने क्या कहा, सब के सामने ही बताऊंगा. अब तुम जाओ. बूआ नाराज न हों, इसलिए यह मत बताना कि तुम मेरे साथ थीं.’’ डूबते को जैसे तिनके का सहारा मिला. गरदन झुका कर वह चली गई.
दूसरे दिन डाक्टर से मिला. गीता की पीड़ा और उस के निदान के बारे में सबकुछ जाना. बचपन से यौवन तक पीड़ा और उपेक्षा सहने के कारण वह सामान्य रूप से पनप ही न पाई थी. पति ने छूना चाहा तो चीख उठी, क्योंकि पिता के स्पर्श की भूख ज्यादा बलवान थी. बालसुलभ इच्छाएं परिपक्वता पर हावी हो रही थीं. हृदय की भूख और आयु की मांग में वह सीमारेखा नहीं खींच पाई थी. फिर मैं उस के स्कूल गया. मुझे देख वह धीमे से मुसकरा पड़ी. आधे दिन की छुट्टी दिला कर मैं उसे समुद्र किनारे ले गया. तेज धूप में एक छायादार कोना खोज लिया. अचानक मेरे हाथ में अपना हाथ देख वह सहम गई थी. ‘‘एक बात बताना गीता, क्या तुम शादी के बाद पति के साथ निभा नहीं पाईं या उस का व्यवहार अच्छा नहीं था?’’
‘‘जी…’’ उस ने गरदन झुका ली.
‘‘उस का छूना तुम्हें बुरा क्यों लगता था? वह तो तुम्हारा पति था.’’
‘‘पता नहीं,’’ वह धीरे से बोली.
‘‘मुझे अपना मित्र समझो, अपने मन की बातें सचसच बता दो. मैं चाहता हूं कि तुम्हारा घरसंसार तुम्हें वापस मिल जाए.’’ ‘‘जी,’’ एकाएक उस ने मेरे हाथ से अपना हाथ खींच लिया और अविश्वास से मुझे निहारने लगी. ‘‘तुम पागल नहीं हो, यह बात मैं अच्छी तरह जानता हूं. तुम मुझे अच्छी लगती हो, इसलिए चाहता हूं कि सदा सुखी रहो. जरा सा तुम बदलो, जरा सा तुम्हारा पति. इस तरह घर टूटने से बच जाएगा.’’ ‘‘वह इंसान, जिस ने मेरा अपमान कर मुझे पागल ही बना दिया, वह क्या मुझे मेरा घर देगा?’’
‘‘उस ने तुम्हारा अपमान क्यों किया?’’
‘‘आप ये सब जानने वाले कौन होते हैं. जो कभी मेरा था, जब वही मेरा नहीं हुआ तो आप की इतनी दया मैं क्यों स्वीकार करूं?’’ ‘‘कौन था तुम्हारा, गीता? क्या किसी और से प्यार करती थीं?’’ ‘‘नहीं,’’ वह चौंक गई, शायद उस की चोरी पकड़ी गई थी या जो वह कहना चाह रही थी, उस का अर्थ मैं नहीं समझा था. उस ने गरदन झुका ली. ‘‘मैं तुम्हारी सहायता करूंगा, गीता, मैं ने कहा न, मुझे अपना मित्र समझो.’’ ‘‘मैं जैसी हूं वैसी ही अच्छी हूं. डाक्टर ने क्या कहा, बताइए?’’ ‘‘तुम पागल नहीं हो, डाक्टर ने यही कहा है. अब आगे क्या करना है, मैं तुम से यही पूछना चाहता हूं?’’
‘‘मेरा जो होना था, हो चुका. अब कुछ नहीं होगा. चलिए, वापस चलें.’’ उसी शाम मैं गीता के पति से मिला. उसे समझाना चाहा तो वह ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘जानते हो, एक बार उस ने क्या कहा? कहने लगी, मेरी सूरत में उसे अपने पिता की सूरत
नजर आती है. बेवकूफ लड़की, मुझे उस में कोई दिलचस्पी नहीं है और अब तो मेरी दूसरी शादी भी पक्की हो गई है.’’ मेरा अंतिम प्रयास भी विफल रहा. उस रात मैं सो नहीं सका. सुबह मां ने बूआ की बताई लड़की देखने की बात की, तब लगा कि मन में कुछ चुभ सा गया है. गीता का शिला समान अस्तित्व मस्तिष्क में उभर आया . मैं सोचने लगा, अगर मेरी शादी गीता से हो जाए तो क्या बुरा है? उस में हर गुण तो हैं. जीवन का एक कोना सूना रह जाने से वह पनप नहीं पाई तो इस में उस का क्या दोष? पति की सूरत में पिता को तलाशती रही, यह इस सत्य का एक और प्रमाण था कि उस का बचपन उस के मन में कहीं सोया पड़ा है. सौतेली मां ने पिता छीन लिया और अब वह जवानी में उस छाया को पकड़ने का प्रयास कर रही है जिस का स्वरूप ही बदल चुका है. दूसरी शाम बूआ ने मुझे बुला भेजा. मैं वहां चला तो गया परंतु गीता के लिए कुछ ले जाना नहीं भूला. फूफाजी भी सामने थे और बूआ के दोनों बेटे भी. गीता सब के लिए चाय ले आई. उस दिन वह मुझे संसार की सब से सुंदर स्त्री लगी. शायद उस के प्रति जाग उठा स्नेह मेरी आंखों में उतर आया था. ‘‘कल लड़की देखने जाएगा न, मैं खबर भिजवा दूं?’’ बूआ ने पूछा.
कुछ देर मैं हिम्मत जुटाता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘मैं लड़की देख चुका हूं, बूआ.’’
‘‘अच्छा, कहां देखी? मुझे तो उन्होंने नहीं बताया.’’
‘‘तुम्हारी यह सौतेली बेटी मुझे बहुत पसंद है.’’ सामने बैठे फूफाजी अखबार झटक कर खड़े हुए, जैसे उन्हें मुझ पर या अपने कानों पर विश्वास ही न हुआ हो. बोले, ‘‘ये पागल…’’ ‘‘यह पागल नहीं है, फूफाजी. मैं इसे मनोवैज्ञानिक को दिखा चुका हूं. पागल तो आप हैं कि अपनी दूधपीती बच्ची से बाप का साया ही छीन लिया. कभी नहीं सोचा कि यह आप के लिए तड़पती होगी, कितना रोई होगी अपने पिता के लिए. नए जीवन का आरंभ कर आप ने अपने अतीत से ऐसे हाथ झटक लिया कि वह चौराहे का मजाक बन गया. किसी ने इस मासूम लड़की को पागल कह कर छोड़ दिया और किसी ने…’’ ‘‘गौतम,’’ बूआ ने चीख कर विरोध करना चाहा, मगर उस पल जैसे मैं सारा आक्रोश निकाल कर ही दम लेना चाहता था. हक्कीबक्की सी खड़ी गीता सब को यों देख रही थी, मानो मन ही मन मेरी वजह से स्वयं को अपराधी महसूस कर रही थी. ‘‘पागल तो तुम भी हो बूआ, जिस ने संतान से उस का पिता छीन लिया.’’
बूआ के दोनों बेटे मुझे यों घूर रहे थे मानो उन्हें भी मेरे शब्दों पर विश्वास न हो रहा हो. फूफाजी गरदन झुका कर बैठ गए. हाथ में पकड़ा पैकेट गीता को थमा मैं ने फिर से हिम्मत बटोरी, ‘‘फूफाजी, मैं गीता को पसंद करता हूं. आप इजाजत दे दीजिए.’ मेरी मां ने गीता का विरोध किया, मगर मेरी जिद के सामने धीरेधीरे शांत हो गईं और एक दिन गीता मेरी हो गई. लेकिन मां ने मुझे घर छोड़ देने का आदेश दे दिया. उन्होंने कहा, ‘‘क्या कुंआरी लड़कियां मर गई थीं जो तुम ने एक तलाकशुदा, पागल लड़की से शादी करने की जिद पकड़ ली.’’ शादी के 3-4 दिन बाद ही मैं नए स्थान के लिए चल पड़ा. शादी से पहले ही पूना का तबादला करा लिया था. गृहस्थी के नाम पर बस मेरे पास एक अटैची थी. इतना शुक्र था कि क्वार्टर और थोड़ाबहुत फर्नीचर औफिस की तरफ से मिल गया था. कठपुतली सी गीता मेरे साथ चली आई थी. मां नाराज थीं, इसलिए चंद बरतन तक नहीं दिए थे कि जिन में मैं एक वक्त का खाना ही बना पाता. आतेआते अग्रिम तनख्वाह लेता आया था. गीता को घर छोड़ होटल से खाना और बाजार से जरूरत का सामान ले आया. जैसेतैसे पेट भर कर सोने की तैयारी की तो बिस्तर की समस्या आड़े आ गई. ‘‘आप यहां सो जाइए,’’ गीता ने कहा. सामने अपनी सूती साड़ी बिछा कर उस ने मेरा बिस्तर लगा दिया था. तकिया भी अपनी साड़ी को ही 5-6 मोड़ दे कर बना दिया था. मैं चुपचाप लेट गया. पर दूसरे ही क्षण खाली पलंग की ओर बढ़ती गीता का हाथ पकड़ लिया, ‘‘जो है, उसी को आधाआधा बांटना है गीतू, सुखदुख भी, रोटी भी, तो फिर बिस्तर क्यों नहीं? देखो, यह क्या है, तुम्हारा खिलौना तो वहीं छूट गया था न, यह नया लाया हूं, रबड़ का गुड्डा.’’ जैसे किसी ने उस के रिसते घाव पर हाथ रख दिया हो. वह कभी मुझे और कभी खिलौने को निहारने लगी, जैसे सपना देख रही हो.
‘‘मेरे पास आओ, गीता. सच मानो, तुम्हारी इच्छा के बिना मैं कभी कुछ नहीं मांगूंगा. आओ, यहां आओ, मेरे पास.’’ उसे अपने समीप बिठाया. उस की डबडबाई बड़ीबड़ी आंखों में देखा, ‘‘क्या सोच रही हो, गीता? मैं तुम्हें अच्छा तो लगता हूं न?’’ उस ने नजरें झुका लीं. मैं ने बढ़ कर उस का माथा चूम लिया तो वह तड़प कर मेरे गले से लिपट कर बुरी तरह रोने लगी. ‘‘यह घर तुम्हारा है गीता, मैं भी तुम्हारा हूं. जैसा तुम चाहोगी, वैसा ही होगा. मैं तुम्हारा अपमान कभी नहीं होने दूंगा. बहुत सह लिया है तुम ने. अब कोई भी इंसान तुम्हें किसी तरह की पीड़ा नहीं पहुंचाएगा.’’ सुबकतेसुबकते वह मेरी बांहों में ही सो गई. सुबह वह उठी तो मेरी तरफ एक लजीली सी मुसकान लिए देखा. नए औफिस में मेरा पहला दिन अच्छा बीता. शाम को घर आया तो मेरी तरफ 5 हजार रुपए बढ़ा कर गीता धीरे से बोली, ‘‘यही मेरी जमापूंजी है. यह अब आप की ही है. चलिए, जरूरी सामान ले आएं. मैं ने सूची बना ली है.’’ मुझे उस के हाथ से रुपए लेने में संकोच हुआ. मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर वह आगे बढ़ी और रुपए मेरी कमीज की जेब में डाल दिए. फिर अपनी हथेली मेरे हाथ पर रख दी.
उसी दिन हम ने और जरूरी सामान खरीदा और टूटीफूटी गृहस्थी की शुरुआत की. कहां पागल थी गीता? पलपल मेरे घर को सजातीसंवारती, मेरे सुखदुख का खयाल रखती. मुझे तो यह किसी भी कोण से पागल न लगी थी. हां, शरीर अवश्य एक नहीं हो पाए थे, मगर उस के लिए मुझे जरा भी अफसोस नहीं था. वह मुझे अपना समझती थी और मेरे सामीप्य में उसे सुख मिलता था, यही बहुत था. मैं सब को यह दिखा देना चाहता था कि उन्होंने गीता को कितना गलत समझा था. विशेषरूप से उस के पूर्व पति को जिस ने मात्र चंद पलों के शारीरिक सुख के अभाव में हर सुख को ताक पर रख दिया था. गीता मुझे अपने बचपन के खट्टेमीठे अनुभव सुनाती तो मैं बूआ पर खीझ उठता. मामामामी के पास अनाथों की तरह पलतेपलते उस ने क्याक्या नहीं सहा था. सुनातेसुनाते वह कई बार रो भी पड़ती. ऐसे में उसे बांहों में भर कर धीरज बंधाता. ‘‘मेरे पिता ने कभी मुड़ कर मेरी तरफ नहीं देखा. मां के जाते ही मैं अनाथ हो गई. अगर मैं मर गई तो क्या आप मेरे बच्चों को अनाथ कर देंगे? गौतम, क्या आप भी ऐसा करेंगे?’’
एकाएक उस के प्रश्न पर मैं अवाक् रह गया. रुंधे स्वर में उस ने फिर से पूछा, ‘‘क्या आप भी ऐसा ही करेंगे?’’ ‘‘ऐसा मत सोचो, गीता. मैं तुम से प्यार करता हूं, तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं चाहूंगा.’’ ‘‘मैं भी अपने पिता से बहुत प्यार करती हूं, उन का अनिष्ट नहीं चाहती थी, इसलिए कभी उन के पास नहीं आई. मां मुझे पसंद नहीं करतीं. मेरी वजह से उन की गृहस्थी में दरार न पड़े, ऐसा ही सोच सदा अपनी इच्छा मारती रही. लेकिन जब भी आप मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हैं तो मेरी इच्छा एकाएक जी सी उठती है.’’ ‘‘मैं तुम्हारी इच्छा का सम्मान करता हूं, गीता. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है,’’ उस के गाल थपक कर मैं हंस पड़ा. मैं स्वयं हैरान था कि कैसे एक ही रिश्ते में बंधे हुए 2-2 नातों को निभा रहा हूं. मेरे सामीप्य में उस की हर
अतृप्त इच्छा शांत हो रही थी. कभी खिलौने के लिए होशोहवास खो बैठने वाली गीता अब मेरे लिए पागल रहने लगी थी. एक शाम उस ने पूछा, ‘‘आप भी कहीं मेरे पिता की तरह मुझ से आंखें तो नहीं फेर लेंगे? मुझ से मन तो नहीं भर जाएगा?’’ मैं हतप्रभ रह गया. गीता आगे बोली, ‘‘मैं आप की हर स्वाभाविक इच्छा को मार रही हूं. कैसे निभ पाएगा हमारा साथ? अपने पिता के सिवा मुझे कुछ भी नहीं सूझता. आप भी, आप भी पिता जैसे लगते हैं. मैं कुछ और सोचना चाहती हूं, मगर कैसे सोचूं?’’ स्नेह से पास बिठा मैं ने उसे चूमा तो मुझे उस का माथा कुछ गरम लगा, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या? मैं अभी दवा ले कर आता हूं.’’
‘‘आप मेरे पास रहिए,’’ गीता ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. उस ने मुझे जाने नहीं दिया. काफी देर तक पास बैठा उस का सिर सहलाता रहा. हमारी शादी को लगभग 4 महीने हो गए थे. इस अंतराल में मैं ने यह महसूस कर लिया था कि गीता मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है. एक दिन उस ने कहा, ‘‘कहीं मैं सचमुच तो पागल नहीं हूं? शायद यही सच हो.’’ ‘‘नहीं, तुम पागल नहीं हो, मैं कहता हूं न,’’ मैं ने दुलार कर उसे शांत कर दिया और उसी रात एक निश्चय ले लिया. दूसरी सुबह फूफाजी को गीता की बीमारी का झूठा तार दे दिया. सोचा, शायद बेटी का मोह उन्हें खींच लाए. तार देने के बाद मैं 2-3 दिन उन का इंतजार करता रहा. रहरह कर रोना आ जाता कि बेचारी गीता का ऐसा अनादर… तीसरे दिन मैं ने एक और तार दे दिया. उस का भी इंतजार किया, मगर कोई भी न आया. इसी तरह एक सप्ताह बीत गया. एक रात मैं बेहद बेचैन रहा. बारबार करवटें बदलता रहा, रहरह कर हर आहट पर उठ बैठता कि शायद मेरी गीता का हालचाल पूछने कोई आ रहा हो.
मैं सोचने लगा कि वे पिता हैं, पुरुष हैं, इतने मजबूर तो नहीं कि बेटी से चाह कर भी न मिल पाएं. आखिर क्यों वे इतने कठोर हो गए? उन दिनों मेरी हालत विचित्र सी हो गई थी. सुबह उठते ही मैं घर से निकल गया. मन में आ रहा था एक बार मुंबई जाऊं और फूफाजी को घसीट कर ले आऊं. स्टेशन पर गया, टिकट खरीदा. गाड़ी में बैठ गया, मगर पहले ही स्टेशन पर उतर गया. सोचा, क्यों जाऊं उन के पास? भटकभटक कर जब थक गया तो घर लौट आया.
‘‘कहां चले गए थे आप, सुबह से भूखेप्यासे?’’ गीता का घबराया स्वर कानों में पड़ा तो जैसे होश आया. मैं चुप ही रहा. नहाधो कर नाश्ता किया. गीता के अपमान पर बहुत गुस्सा आ रहा था. रात को मैं ने गीता को पास बुलाया, पर वह नीचे जमीन पर ही लेटी रही. तब स्वयं ही उठ कर नीचे चला आया और स्नेह से सहला दिया, ‘‘क्यों गीतू, मुझ से नाराज हो?’’ वह न जाने कब से रो रही थी. मैं अवाक् रह गया और उसे अपनी गोद में खींच लिया. ‘‘किसी ने कुछ कह दिया, गीता? क्या हुआ, रो क्यों रही हो?’’ अनायास ही उस के हाथों को पकड़ा तो कागज का एक मुड़ातुड़ा टुकड़ा मेरे हाथ में आ गया. उस के पिता को भेजे गए तार की वह रसीद थी.
‘‘आप ने पिताजी को तार क्यों भेजा? क्या मुझे वापस भेजना…?’’
‘‘नहीं गीता, पागल हो गई हो क्या?’’ एक झटके से उसे बांहों में भींच लिया. उस के भीगे चेहरे पर स्नेह चुंबन जड़ते हुए मुश्किल से मैं बोल पाया, ‘‘तुम्हें वापस भेज दूंगा, तुम ने यह कैसे सोच लिया?’’ फिर मैं उसे अपने पास बिस्तर पर ले आया और जबरदस्ती उस का चेहरा सामने किया, ‘‘तुम्हारे लिए सब को छोड़ दिया है गीता, भला तुम्हें…’’
‘‘तो आप ने उन्हें तार क्यों भेजा?’’ उस के मासूम प्रश्न का मैं ने उत्तर दे दिया. सब साफसाफ बताया तो वह तड़प उठी, क्योंकि उस की बीमारी की बात सुन कर भी पिता के सब्र का प्याला छलका नहीं था. मेरी छाती में समाई वह देर तक सुबकती रही. अपने प्रति अनायास झलक आए अविश्वास ने उस रात अनजाने ही मेरे शरीर की ऊष्मा को भड़का दिया था. मैं उसे कितना चाहता हूं, यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न करने लगा. मैं ने उसे यह एहसास भी दिलाना चाहा कि वह मेरे ही शरीर का एक अभिन्न अंग है. अपने अनछुए, अनकहे भाव रोमरोम से फूटते प्रतीत होने लगे. उन्हीं क्षणों में मेरे सीने में समाईसमाई वह मेरे अस्तित्व में भी कब समा गई, पता ही न चला. वे चंद क्षण आए और हमें पतिपत्नी बना कर चले गए. गीता मुझे एकदम नईनई सी लगने लगी थी. उस रात हम दोनों ने पहली बार महसूस किया कि शारीरिक सुख क्या होता है. यह मेरी विजय ही तो थी कि गीता अपनी कुंठाओं से मुक्त हो कर अभिसारिका बन गई थी. उस के मन की डगर से होता हुआ मैं उस के तन तक जा पहुंचा था.
फिर एक दिन मुझे पता चला कि मैं पिता बनने जा रहा हूं. मैं ने कहा, ‘‘मुझे प्यारी सी तुम्हारी जैसी बेटी चाहिए गीता, मैं उस से बहुत प्यार करूंगा.’’ लेकिन मेरा हर्ष और उत्साह एकाएक ठंडा पड़ गया, जब शून्य में निहारते हुए वह बोली, ‘‘प्यारव्यार सब धरा रह जाएगा. मैं मर गई तो आप भी उस से ऐसे ही आंखें फेर लेंगे, जैसे पिताजी ने मुझ से.’’
‘‘नहीं गीता, ऐसा नहीं सोचते.’’
‘‘मेरे सोचने से क्या होगा? मनुष्य हालात के हाथों का खिलौना ही तो है. वर्तमान में जीने के लिए आप को भी अतीत से हाथ झटकना ही पड़ेगा.’’ ‘‘आने वाले दिनों में क्या होगा, उस की चिंता में आज का अनादर मत करो, गीता. कुछ भी उलटासीधा मत सोचो,’’ अपनी भुजाओं में कस कर मैं ने उस के गाल पर एक मुहर तो लगा दी, मगर उसे अवसाद से अलग नहीं कर पाया. धीरेधीरे वक्त आगे सरका. एक दिन मां की बीमारी का तार मिला तो हम दोनों घर गए. छोटा भाई दिनरात मां की सेवा कर रहा था. गीता ने जाते ही उसे इस जिम्मेदारी से मुक्त किया और कितने ही दिन मां की सेवा में लगी रही. मैं हर हफ्ते घर जाता रहा. इसी तरह लगभग 1 महीना व्यतीत हो गया. मां चुप थीं और पिताजी सवालिया नजरों से मुझे देखते, जैसे पूछ रहे हों, ‘क्या यह वही गीता है जिसे लोग पागल कहते थे?’
मैं कई बार सोचता, ‘जरूर बूआ और फूफाजी घर आते होंगे. क्या वे बेटी से मिलते होंगे? क्या अब भी मेरी पत्नी को अपनी पुत्री नहीं समझते होंगे?’
एक दिन पिताजी ने धीरे से कहा, ‘‘अपना तबादला यहीं करा ले बेटे, अकेले हमें अच्छा नहीं लगता.’’
‘‘और गीता? उसे कहां फेंक दूं? आप का घर पागलखाना तो नहीं है न?’’‘‘बस करो गौतम. वह तो हमारी सब से बड़ी भूल थी.’’ पिताजी ने अपनी भूल मान ली थी. लेकिन अपना तबादला मेरे हाथ में नहीं था, फिर भी मैं ने आश्वासन दे दिया. एक दिन आंगन में फूफाजी को खड़े देख एक मिलीजुली भावना से मेरा पूरा शरीर कांप गया. वे मां का हालचाल पूछने आए थे. मैं ने देखा, गीता अपने कमरे में चली गई है. उस के पिता ने भी शायद उसे देखना नहीं चाहा था. मेरा मन रो रहा था. जी चाह रहा था कि किसी तरह गीता को पिता से मिलवा दूं. फूफाजी के चेहरे पर आतेजाते भाव मैं पढ़ना चाह रहा था, मगर वे सामान्य रूप से आम बातें कर रहे थे, राजनीति और महंगाई की बातें… ‘‘महंगी तो हर चीज हो गई है, फूफाजी. अगर मैं संतान के लिए पिता का प्यार खरीद सकता तो गीता के लिए उस के पिता का थोड़ा सा स्नेह खरीद लेता. मगर कैसे खरीदूं, उस की कीमत पता नहीं है न…’’ मैं ने तीर छोड़ा और वह संभावना के विपरीत ठीक निशाने पर जा बैठा. मैं ने हौले से कहा, ‘‘गीता की बीमारी का तार मिला था न आप को, क्या उस की मौत का इंतजार था आप को? क्या मांगा था उस गरीब ने आप से? क्या बिगाड़ा है उस ने आप का? सिर्फ यही कि आप के घर में जन्म ले लिया?
‘‘अच्छीभली लड़की को लोगों ने पागल बना दिया और आप सुनते रहे. कभी नहीं सोचा कि वह पागल क्यों समझ ली गई.’’ मैं कहता रहा और वे सुनते रहे. मां और पिताजी भी वहीं थे. तभी मेरा छोटा भाई गीता का हाथ पकड़े लगभग खींचता हुआ उसे बाहर ले आया, ‘‘भाभी रो रही हैं, भैया.’’ सब की नजरें उसी तरफ उठ गईं. पिता का सामना करते ही वह शिला जैसी हो गई. फूफाजी देर तक उसे निहारते रहे. उस के उभरे पेट पर भी उन की नजर चंद पलों के लिए ठिठकी. मैं ने फूफाजी की ओर देखा, ‘‘सिर्फ एक बार बेटी के सिर पर हाथ रख दीजिए. फूफाजी, लड़के तो दहेज में बहुत कुछ मांगते हैं, मगर मेरी तो सिर्फ इतनी सी ही मांग है.
‘‘मैं गीता को सबकुछ दे सकता हूं, सारी खुशियां दे सकता हूं मगर उस का पिता तो नहीं न बन सकता.’’ मेरे छोटे भाई ने फिर से गीता का हाथ पकड़ा और उसे फूफाजी के पास ला बिठाया. वह झरझर आंसू बहाती बैठी रही. फूफाजी जैसे शिला बने बैठे थे, अनायास उन में हलचल हुई. कुरते की जेब से कुछ निकाल कर उन्होंने गीता की गोद में रख दिया.
‘‘यह क्या, फूफाजी?’’ मेरी नजरों के सामने सोने के भारी कंगन चमक उठे. ‘‘ये इस की मां के हैं, बेटे. इस का सबकुछ बंट गया, मगर मैं ने इन्हें नहीं बंटने दिया,’’ अपने हाथों से बेटी के हाथों में कंगन पहना कर उन्होंने उस का माथा चूम लिया. गीता किसी नन्ही बच्ची की तरह जोरजोर से रो पड़ी. फूफाजी उस का चेहरा ही हाथों में भर कर देर तक निहारते रहे. फिर बोले, ‘‘आज भी सब से चोरी से आया हूं, गीता. वे नहीं चाहते कि मैं तुम से मिलूं. ‘‘क्या करूं, गृहकलह से बचने के लिए कई बार इंसान को मन भी मारना पड़ता है. तुम्हारी बीमारी का तार मुझे नहीं मिला बिटिया, वरना मैं जरूर आता. शायद तुम्हारी मां ने छिपा लिया होगा. ‘‘मैं तुम्हारे प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी नहीं निभा पाया. अपने हाथों से तुम्हें पालपोस नहीं सका, मगर यह सच नहीं कि मैं तुम से स्नेह नहीं करता. मैं हमेशा तुम्हारे ही बारे में सोचता रहता हूं. विश्वास मानो, जब गौतम ने तुम्हारा हाथ मांगा, वह पल मेरे जीवन का सब से अमूल्य पल था. सदा सुखी रहो, बेटी.’’अपने पिता के सीने में समा कर गीता कितनी ही देर तक बिलखती रही. फूफाजी भी रोते रहे. पिछले 20 सालों की पीड़ा वे दोनों आंखों के रास्ते बहा रहे थे. मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर किसे दोष दूं-प्रकृति को, जिस ने गीता से उस की मां छीन ली थी? या अपनी बूआ को, जिन्होंने अपने पति को किसी के भी साथ बांटना नहीं चाहा था? या फिर फूफाजी को जो कठोर कदम उठा कर पुत्री को अपने साथ नहीं रख पाए और घर की सुखशांति के लिए सदा चुप रहे?
आखिर, मेरी गीता के साथ हुए अन्याय के लिए दोषी कौन था?
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