ये कहाँ आ गए हम

पेपर में रेमंड के मालिक विजयपत सिंघानिया साहब के बारे में जो भी निकला, उसने दिमाग को शांत रहने नहीँ दिया।मामला क्या है?सही कौन है?----ये सारे प्रश्न अपनी जगह पर हैं,लेकिन उम्र का असर या कहें भाग्यरेखा अपना कमाल कब दिखा दे,ये जान पाना आज भी मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है---तमाम वैज्ञानिक उपलब्धता के बाद भी।

इससे पहले मुम्बई की आशा साहनी का मामला पढा था।प्रश्न उस समय भी यही आया था—किसी का अंत इतना दुखद कैसे हो सकता है?माना बेटा विदेश में था,कोई ऐसी बात हो गई होगी कि वो अपनी मां से दूर हो गया होगा,लेकिन क्या उनका कोई रिश्तेदार नहीँ था जिनसे उनकी बात होती हो—हफ्ते न सही महीनों में भी?जिस सोसायटी में वो रहीं उम्र भर,वहाँ कोई उनका ऐसा परिचित नहीँ था जो महीनों बीतने पर खोज खबर लेता?और दूधवाला,भाजी वाला या परचून वाला कोई आता ही नहीं था।कोई काम वाली भी नहीँ आती थी?कौन सा जीवन जी रही थी वो औरत?कोई लाश कंकाल में बदल गई और आस-पास का समाज जान ही नहीं पाया?क्या हम इतने संवेदनहीन समाज में रहते हैं?

कुछ सालों पहले रिलायंस बन्धुओं का बंटवारा बहुत चर्चा में रह था।वो घटना भी सामान्य नहीँ थी उस समय के हिसाब से,क्योकि भले ही देखने में बंटवारा सम्पत्ति का था,परन्तु क्या सच में मात्र सम्पत्ति विवाद ही था?कुछ करोड़ से कितना फर्क पड़ता?जाने कितनी सम्पत्ति परोपकार में लगा चुके हैं दोनो।मात्र पैसा ही तो कारण नहीँ हो सकता बंटवारे का कारण।फिर?

ऊपर की घटनाएं ऐसी नहीँ हैं जो पैसे की कमी के कारण घटी हों।सिंघानिया साहब कोई मामूली हस्ती नहीँ हैं,पद्मभूषण से अलंकृत रहे हैँ, कई साहसिक कारनामें उनकी उपलब्धि हैँ, फिर क्या कारण है कि पुत्र को अपने पिता पर गर्व नहीँ हुआ?उनके बीच में इतना प्यार भी नहीँ बचा कि पुत्र को अपने पिता की लाचारी का दर्द महसूस हो पाता?क्या कारण है कि तमाम आरोपों के बाद भी वो निश्चिन्त है?क्या अत्यधिक सम्पत्ति व्यक्ति को संज्ञाशून्य कर देती है या पिता की उपलब्धि बच्चे के मन में इतनी कुंठा भर देती है कि वो सारे एहसास से परे हो जाता है?

अम्बानी बन्धुओं की बात करें तो धीरूभाई अंबानी एक किंवदंती की तरह उभरे थे।चमत्कारिक तरीके से वो फर्श से अर्श तक पहुंचे थे अपनी काबलियत मेहनत और भाग्य की बदौलत।कैसे मान लें कि उनके परिवार ने अपने बच्चों को सहकारिता का पाठ नहीँ पढ़ाया होगा ,जबकि एक व्यक्ति पूरी निश्चिन्ति से आगे तभी बढ़ सकता है जब या तो उसके साथ उसका परिवार मजबूती से खड़ा हो या फिर वो परिवरविहीन हो।फिर कौन से वो कारक रहे जिसने मन के संतोष को समाप्त कर दिया और बंटवारा आना-पाई जैसा हुआ।पैसे और पुरुषार्थ की कमी दोनो में नहीँ थी,फिर??

अब एक नजर आशा साहनी पर भी।ये एक ऐसी घटना है जिसे पिछले चालीस साल में तो हमने नहीँ सुना है,न ही अपने आस-पास देखा ही है।और निश्चित रूप से ये विषय भी समाज के लिए विचारणीय है।बेटे को हर बात में कटघरे में खड़ा करना समाज का जन्मसिद्ध अधिकार है।किसी ने एक बार भी नहीँ सोचा आखिर उसे अपने माँ की कौन सी ऐसी बात चुभ गई जो उसने फोन करना भी जरूरी नहीं समझा, जबकि पैसा भेज रहा था।फिर एक बेटा ही तो परदेस में था,बाकी मायके,ससुराल वाले,जान पहचान वाले,अड़ोसी पड़ोसी वैगेरह तो देश में ही होंगे,किसी को उनकी कमी महसूस क्यों नहीं हुई।आखिर किसी से भी सम्बन्ध उनके नहीँ थे?कैसा जीवन बिताती थी वो अकेली औरत जिसको अनाज,सब्जी,दूध वैगेरह किसी चीज की जरूरत ही नहीं होती थी।क्या इतनी सामर्थ्यवान थी वो अस्सी साल की उम्र में कि कोई काम वाली भी नहीँ आती थी?

अब सवाल यही है-----दोषी कौन?इन सारी घटनाओं में एक बात सब में आती है कि हर नई पीढ़ी में पुरानी पीढ़ी से पूरी तरह अलग होने की छटपटाहट पलती रही।जिसे जब जैसा मौका मिला,पुरानी पीढ़ी को किनारे लगाता गया।दो पीढ़ियों को प्यार कर्तव्य जैसी चीजें बांध नहीँ पाई और शानदार इतिहास के बाद भी नई पीढ़ी ने पुरानी सत्ता तो चाही,लेकिन हुकूमत और साथ नहीँ चाहा।यहां तक कि इस तरह से सम्वेदना विहीन हुए कि दर्द तो छोड़िए,सहानुभूति भी शायद नहीँ रह गई।

वैसे सम्पत्ति का बंटवारा तो हमेशा ही लगभग इसी तरह हुआ है,बल्कि इससे भी बुरी तरह हुआ है,लेकिन किसी के जीवन का अंत आज तक इतनी बुरी तरह शायद नहीँ हुआ है।मन का रिश्ता कितना  भी टूटा, लेकिन अंततः आया बेटा ही पास---चाहे प्यार में आया या स्वार्थ में आया,पर आया तो।सवाल तो अब उस महानगर के समाज में उठना चाहिए कि एक औरत साल भर से घर में बंद रही—मर गई,सड़ गई और अंततः सूख कर कंकाल बन गई और आस पास का समाज अनजान रहा।महानगर की विशाल जनसंख्या में कोई कितना अकेला है----यही सीख दी रही है आशा साहनी मरने के बाद भी।अब देर न किया जाय तो ही अच्छा है अन्यथा हर तीसरे घर से एक आशा साहनी का किस्सा शुरू हो जाएगा।बेशक अभी छोटे शहर में इतनी लापरवाही है नहीँ, लेकिन अगर महानगर में सुधार नहीँ हुआ तो समाज का कोई कोना बचेगा नहीँ।

By, अन्नपूर्णा मिश्रा

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