कहानी - एक विचार
आज बाजार में मैं समान खरीद रही थी,वहीं उसी दुकान के चबूतरे पर दो औरतें आपस में बातें कर रही थीं।आवाज तेज नहीँ थी,लेकिन समझ आ रहा था।वैसे कुछ खास नहीँ था बातों का विषय----वही आपस के सुख-,दुख थे,रोज वाले। परन्तु उन बातों में कुछ खास था जो हमें भी सोचने को विवश कर रहा था।दोनो अपने परिवार के वृद्धजनों से दुखी थीं। उनका मानना था कि वे आदेशित तो कर देते हैं, साथ ही चाहते हैँ कि काम उनके तरीके से ही हो।करने वाले की समस्या न सुनते हैं, न समझते है। बस यही एक बात थी जिसे अपने दिमाग में लिए घर आ गई।बात उन दोनों की अपनी जगह सही ही थी। बताने वाले को अगर करना नहीँ है तो वो नियम कानून का सख्त बना होता है,शामत करने वाले की आती है।
इस तरह के नियम कानून का पालन होते मैंने देखा भी है और झेला भी है।कमोवेश ऐसे ही विचार मेरे तब थे जब मैं स्वयं कार्यकर्ता थी।बुजुर्ग जन चाहते तो हमेशा यही कि उनके सारे बताये नियम के घेरे में ही व्यवस्था चले,क्योकि इसी में वो सहज होते हैं और उनके अहम को संतुष्टि भी मिलती है शायद।परन्तु जिसे करना है,उसकी कौन सुने? घर का काम,बच्चों का काम,पति का काम,बड़ेबूढ़ों का काम,तीज त्योहार,मेहमान,आने जाने वाले पड़ोसी,उफ्फ्फ।ले दे के पति की तरफ सहायतार्थ देखे तो उसने पल्ला पहले ही झाड़ लेना है।
ऊपर से डायलॉग अलग----बर्तन –सफाई वाली लगी तो है,खाना अलग बना जाती है महराजिन,काम ही क्या बचा?अब क्या बताएं, जिन कामों को वो करती है वो गिनाए नहीँ जा सकते, पर पूरा दिन उसी में जाता है।वैसे ये भी सच है कि बिना गिनती वाले काम उनको ही दिखते हैं जो घर के प्रति जिम्मेदार हों,जिम्मेदारी न लीजिये तो फिर आप तो सुखी हैँ, बाकी सब अपनी अपनी जाने।
ये तो थी घरेलू औरतों की दास्तान।कामकाजी औरतों का तो दुख ही अलग होता है। घर – बाहर कैसे मैनेज करना है,खुद समझो।यानी घरेलू महिला की तरह घर देखिये,और बाहर भी स्मार्ट वूमेन बनिये,यानी काम का दोहरा दबाव झेलिये। कोई रियायत नहीँ, कभी सहानभूति मिल जाये तो भाग्यशाली समझिये।घर में काम से बचने के लिए बाहर जाने का और ऑफिस में काम से बचने के लिए घर भागने का अनदेखा लेबल लगभग हर कामकाजी महिला पर लग जाता है,जिसे वो जानती भी है,लेकिन बता नहीं पाती किसी से कुछ भी।
सुनेगा भी कौन?
कुल मिला के सकून किसी तरह नहीँ है। फर्क इतना जरूर होता है कि वर्किग वूमेन चूँकि आर्थिक दृष्टि से मजबूत होती हैं,घर से बाहर भी निकलती हैँ, तो उनमें आत्मविश्वास तो आ ही जाता है,बाकी बाहर निकलने से मन बदल जाता है तो ध्यान देने वाली बातों के अलावा बाकी बातों को इग्नोर कर देती हैँ, और भागमभाग की जिंदगी के बाद भी संतुष्ट रहती हैं।घरेलू औरतें जब कभी आपस में मिल पाती हैं, एक दूसरे से बातें करके मन की भड़ास निकाल लेती हैँ जिसे घरेलू भाषा मे प्रपंच भी कहते हैं, और अंततः सुखी हो जाती हैँ।
मैं ये तो नहीँ कहती कि ऐसा सभी जगह होता है। आज जब मैं अपनी स्वतंत्र जिंदगी जी रही हूं, तो उन बूढ़े लोगोँ की भावनाएं भी समझ पा रही हूं शायद। उम्र का असर भी कह सकते हैं, जिंदगी ठहराव की तरफ तो बढ़ ही रही है,शायद इसीलिए किसी भी उम्र की हाय तौबा को गलत नहीं ठहरा पा रही हूं।नई उम्र अगर कभी विचार करे तो उसे पता चलेगा कि जिस उम्र के लोगों की बातें उन्हें नागवार लग रही हैँ,उन लोगो ने आपकी उम्र का पड़ाव पार किया है ,और जितना आप झेल रहे हो उसकी दुगनी दुश्वारियां उन्होंने झेली हैं, पूरी शिद्दत से।अब जब उन्होंने उस पड़ाव को पार कर लिया तो उन दिनों के दर्द का एहसास भूल गईं। उस उम्र की यादें और उनसे जुड़ी कड़वाहट तो याद है,परन्तु सामनेवाले की दुष्वारियों की समझ भूल गईं।उनके हिसाब से अब काम ही कितना है।
हालांकि वो गलत होती नहीं है अपने हिसाब से,लेकिन समय के साथ बदलने की समझ भूल गई,जिसके कारण खुद भी दुखी होती हैं और नई पीढ़ी को भी अनजाने में ही सही,पर दुखी कर तो जाती हैं।
हालांकि कुछ घर मैंने ऐसे देखे,जहां का सामंजस्य पुरानी पीढ़ी ने अपने अनुभव और नए जमाने के बदलाव को मिला कर इतना अच्छा बना दिया कि अनुकरणीय हो गए।पैसे की कमी या अधिकता इस माहौल को बिगाड़ नहीँ पाया कभी।नई पीढ़ी को क्या कहेंगे,वो तो अनजान है,अनुभव भी कम ही है,तो निश्चित रूप से अक्सर गलतियां करेंगे ही। ध्यान तो पुरानी पीढ़ी को ही रखना है,नये जमाने के बदलाव के साथ सामंजस्य,बिठा कर।
अंत मे,ज्ञान देना आसान है,ज्ञान के हिसाब से काम करना उतना ही मुश्किल।सब बातें दिमाग में घूमने के बाद एक प्रश्न दिमाग में कौंध गया उम्र तो मेरी भी आ रही है,मैं कितनी तैयार हूं?
By, अन्नपूर्णा मिश्रा
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