कहानी - अजाबे जिंदगी
जीवनशाह चौराहे के दाईं ओर की लंबी सी गली के उस पार कच्ची दीवारों और खपरैल वाले घरों का सिलसिला शुरू हो जाता है. ज्यादातर आबादी मुसलमानों की है जो अपने पुश्तैनी धंधों को कंधे पर लाद कर, सीमित आय और बढ़ती महंगाई के बीच समीकरण बैठातेबैठाते जिंदगी से चूक जाते हैं. वक्त से पहले उन के खिचड़ी हुए बाल, पोपले मुंह और झुकी हुई कमर उन की अभावोंभरी जिंदगी की दर्दनाक सचाई को उजागर करते हैं.
टिमटिमाते असंख्य तारों से भरा स्याह आकाश, पश्चिम से आती सर्द पुरवा, उस समय सहम कर थम सी जाती जब मुकीम का आटो तेज आवाज करता हुआ गली में दाखिल होता. आसपड़ोस के लोग रात के खाने से फ्री हो कर अपनेअपने दुपट्टों और लुंगी के छोर से हाथ पोंछते हुए अगरबत्ती की सींक से खाने के फंसे रेशों को दांतों से निकालने का काम फुरसत में करने लगते. अचानक बरतन पटकने और मुकीम की लड़खड़ाती आवाज की चीखचिल्लाहट, नींद से जागे बच्चों के रोने की आवाज और आखिर में नईमा को बाल खींच कर कच्चे आंगन में पटकपटक कर मारते हुए मुकीम की बेखौफ हंसी के तले दब जाती नईमा की दर्दभरी चीखें. यह किस्सा कोई एक दिन का नहीं, रोज की ही कहानी बन गया था. मांसल जिस्म की मंझोले कद वाली नईमा की रंगत सेमल की रुई की तरह उजली थी. शादी के बाद हर साल बढ़ने वाली बच्चों की पौध ने उस के चेहरे पर कमजोरी की लकीरें खींच दी थीं. अंगूठाछाप नईमा, आटो चला कर चार पैसे कमा कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेने वाले मुकीम को सौंप दी गई थी. 15 वर्गफुट के दायरे में सिमटी नईमा की जिंदगी नागफनी का ऐसा फूल बन कर रह गई जिसे तोड़ कर गुलदान में सजाने की ख्वाहिश एकदम बचकानी सी लगती. पूरे 10 सालों तक, हर रात शराब के भभके के बीच कत्ल की रात बनती रही और हर दिन जिंदगी को नए सिरे से जीने की आस में धीरेधीरे शबनम की तरह पिघलती रही.
गम, परेशानी, अभाव और जिल्लतों के बीच जीती नईमा शौहर के मीठे बोल को तरसती. सबकुछ समय पर छोड़ कर राहत की सांस लेने की लाख कोशिशें करती. हर रोज मुकीम की बेबुनियाद और तर्कहीन बातों को चुपचाप बरदाश्त करना, बेवजह मार खाना, जाने कितनी रातें भूखी सो जाने के बावजूद उस दिन नईमा सिर से पांव तक थरथरा गई जब सब्जी में नमक जरा सा कम होने पर मुकीम के तलाक, तलाक, तलाक के शब्दों ने कानों में सीसा घोल दिया. ‘जाहिल मुकीम ने बिना सोचेसमझे यह क्या कर दिया,’ बस्ती के समझदार मर्द और औरतें मन ही मन बुदबुदाने लगे. ‘‘औरत चाहे फूहड़ हो, बदमिजाज हो, मर्द को अगर बाप का दरजा दिला दे तो मर्द उसे हर हाल में जिंदगीभर बरदाश्त कर लेता है, लेकिन मजहबी और दुनियाबी उसूलों से अनभिज्ञ, गंवार मुकीम, तो बस नाम का ही मुसलमान रह गया,’’ बीड़ी कारखाने के मालिक खालिक साहब की अलीगढ़ में पलीबढ़ी बीवी ने कहा. उस रात नईमा आंगन में बैठी रोरो कर सितारों से अपना कुसूर पूछती रही और चांद से अपने बिगड़े समय को संवारने के लिए फरियाद करती रही. मुकीम, अपने किए से बेखबर, पस्त सा, बच्चों के पायताने दिनचढ़े तक पड़ा रहा.
पौ फटते ही मसजिद से उठती अजान की आवाज सुन पड़ोसी समीर का मुरगा पंख फड़फड़ा कर बांग देने लगा. बूढ़ों की खांसखंखार शुरू हो गई और सूरज की पहली किरण के जमीन को चूमते ही मोहसिन की दादी बकरी के थन को पानी से धोते हुए नईमा को देखते ही मुंह बिचका कर बोलीं, ‘‘नासपीटी कितनी बेशरम है, रात को खसम ने तलाक दे दिया मगर यह कम्बख्तमारी मनहूस सूरत लिए अभी तक यहीं मौजूद है. कसम से, एक की जनी होती तो चली न जाती अपने पेशइमाम बाप के घर.’’ थोड़ी ही देर में नईमा के आसपास बच्चों और औरतों का जमघट सा लग गया. करीमन बूआ बोलीं, ‘‘तलाक के बाद औरत अपने मरद के घर नहीं रह सकती, मौलाना कदीर साहब ने बतलाया था तकरीर में.’’ सुनते ही गुलबानो ने चट लुकमा दिया, ‘‘तलाक के बाद भी यह खूंटे गाड़ कर बैठी है यहां. बड़ी दीदेफटी औरत है. अरे, चलोचलो, झोंटा पकड़ कर गली से निकाल बाहर करो वरना इस के लच्छन और ढिठाई देख कर हमारे घरों की बहुएं भी सिर उठाने पर आमादा हो सकती हैं.’’
3-4 तंदुरुस्त और जाहिल औरतों ने नईमा को लगभग खींचते हुए जीवनशाह चौराहे तक पहुंचा दिया. नईमा रोती रही, रहम की भीख मांगती रही लेकिन एक भी जिगर वाला मर्द या औरत नईमा की मदद के लिए आगे नहीं आया. न ही किसी ने मुकीम की बेजा हरकत का विरोध किया. इसलाम में तलाक देने का हक सिर्फ मर्द को ही दे रखा है. इंसानी जज्बात का मखौल उड़ाती मर्द की करतूत ने बस्ती की हर औरत को भीतर तक कंपकंपा दिया. जाने कब किस का शौहर मुकीम का रवैया दोहरा दे. औरत की ममता, प्यार, अपनापन और वफा सब मजहबी कानूनों के हाथों में ठहरे पत्थरों के वार से बुरी तरह लहूलुहान होते रहे.
नईमा के अब्बा जीविकोपार्जन के लिए पेशइमामत के बाद बचे हुए वक्त में किले के उस पार वाले महल्ले में जा कर बच्चों को उर्दू व अरबी पढ़ा कर अपने और अपनी बूढ़ी बीवी के लिए बमुश्किल दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाते थे. नईमा और उस के 5 बच्चों का मुंह भिगोने के लिए दलिया तक जुटाना मुश्किल होने लगा. नईमा और उस की अम्मा दिनभर बीड़ी बनातीं, कभी किसी की रजाईगुदड़ी सिल देतीं. किसी के सलवारकुरते पर गोटाटिकली का काम कर के चटनीरोटी का खर्च निकाल लेतीं. 6 साल का बड़ा बेटा छिपछिप कर घर से चुराई हुई बीड़ी पीता और गुलेल से फाख्ता मारने की कोशिश में दिनभर गलीमहल्ले में फिरता रहता. बीवीबच्चों की जिम्मेदारी के सिर से हटते ही मुकीम का आटो अब अपने घर की तरफ मुड़ने के बजाय खुशीपुरा की उस गली की तरफ मुड़ जाता जहां समाज के मवाद को पैसों के बल पर ब्लौटिंगपेपर की तरह सोखा जाता है.
6 महीने की मौजमस्ती के बाद गांठ का पैसा चूकने लगा. आटोरिकशे के लिए बैंक से लिए गए कर्ज की किस्त की रकम जमा करने के लिए नोटिस आने लगे. घर खस्ता हालत में था. खुशीपुरा की दुत्कार कानों को भेदने लगी. तब मुकीम को बच्चों के चेहरे याद आने लगे. नईमा का खामोशी से उस का जुल्म सहना दिलोदिमाग को कुतरने लगा. औंधे पड़े बरतन, टूटा हुआ चूल्हा मुकीम को कोसने लगा तो वह जा कर एक मौलाना के सामने सिर झुका कर खड़ा हो गया. अपनी भूल पर पछताते हुए कोई रास्ता निकालने के लिए गिड़गिड़ाने लगा. उक्त मौलाना ने कहा, ‘‘दूसरा निकाह कर लो मियां. अच्छेखासे हट्टेकट्टे हो, आटो चलाते हो, एक अदद बीवी का पेट तो पाल लोगे.’’
‘‘मौलाना साहब, इस खड़खडि़या से 7 पेट पल ही रहे थे. एक की क्या बात है.’’ वही मर्दाना अकड़ सिर उठाने लगी ही थी कि इस सोच ने एकदम पस्त कर दिया, ‘खिचड़ी बालों वाले 5 बच्चे के बाप को कौन अपनी बेटी देगा. अभी तो बच्चे नईमा के पास हैं. दूसरा निकाह करते ही वह कोर्ट में अपील कर देगी. उन सभी का खानाखर्चा देतेदेते तो मेरी ये खड़खडि़या भी बिक जाएगी.’
‘‘तो आखिर तुम चाहते क्या हो?’’ मौलाना को गुस्सा आने लगा.
‘‘हुजूर 8-9 सालों में जितना नईमा ने मुझे बरदाश्त किया, उतना कोई दूसरी औरत नहीं करेगी. वह ही समझती है मुझे. गलती तो मुझ से हो गई. उस को ही बच्चों के साथ वापस बुलवाने का इंतजाम कर दीजिए तो एहसान मानूंगा.’’ ठोकर खाने के बाद पछतावे के आंसू मौलाना का दिल पिघलाने लगे. ‘‘हूं, एक बार और अच्छी तरह सोच लो. 15 दिनों के बाद मिलना, तब कुछ सोचेंगे,’’ टालते हुए मौलाना अपने घर की तरफ बढ़ गए थे. अजीब मुसलमान है, तलाक के नफानुकसान मालूम नहीं, बस, लठ्ठ की तरह मजलूम औरत पर ठोंक दिया ‘तलाक’. अब जख्म भरने की दवा मांगते फिर रहा है, जाहिल कहीं का. मुसलमान मजहबी उसूलों को उस रूमाल की तरह समझने लगे हैं जिस की एक तह से मुंह पोंछा जाता है और दूसरी तह से जूता साफ किया जाता है.
मुकीम रिश्तेदारों को नईमा के पास सुलह के लिए भेजने लगा. जुमालो चच्ची मुंह में जर्दे वाले पान का बीड़ा चबाते हुए नईमा के पास पहुंचीं और बोलीं, ‘‘नईमा, जो हुआ उसे भूल जा और मुकीम को माफ कर दे, अपने लिए न सही, बच्चों की खातिर माफ कर दे.’’
‘बच्चे?’ चौंकी नईमा. औरत की सब से बड़ी कमजोरी और सब से बड़ी हिम्मत बच्चे ही तो होते हैं. ये बच्चे बेबाप के न हो जाएं. लोग उन पर तलाकशुदा मां के बेलगाम बच्चे होने का फिकरा न कस दें. तिलमिलाहट में बच्चे तब क्या मेरी कुर्बानियों को सही माने में समझ पाएंगे. नहीं, नहीं, सब सह लूंगी लेकिन, बच्चों की हिकारतभरी निगाहें तो मुझे जिंदा ही जमीन में गाड़ देंगी. मुकीम शराबी, अफीमची है तो क्या हुआ, है तो मेरे बच्चों का बाप. मेरा शौहर है, मेरा वसीला है. परंपरागत और बेहद लिजलिजी सी थोपी गई सोच ने नईमा के तपते लोहे से गुस्से को माफ कर देने वाली दरिया में डाल दिया. छन्न सी आवाज के साथ धुंआ सा उठा. काला कसैला धुंआ जो सदियों से औरत के कमजोर फैसलों पर वक्त की कालिमा पोतता रहा है.
‘‘मुकीम नईमा और बच्चों को घर ले जाने के लिए कह रहा है,’’ वजू के लिए पानी बरतन में डालते हुए नईमा की अम्मी ने अब्बू को बतलाया. उन के मिसवाक करते हाथ एकदम से थम गए.
‘‘ठीक है, आज हाफिज साहब से बात करूंगा, कोई न कोई रास्ता तो कलामे पाक में लिखा होगा. लेकिन याद रखना, मुकीम को मेरी गैरहाजरी में घर में कदम मत रखने देना. तलाक के बाद बीवी शौहर के लिए हराम होती है.’’ हाफिज साहब ने मुकीम के पछतावे और नईमा के बिखरते परिवार के तिनके फिर से जोड़ने की पुरजोर कोशिश पर गौर करते हुए ‘हलाला’ की हिदायत दी. ‘हलाला’, बीड़ी वाले सेठ की पढ़ीलिखी बीवी ने यह सुना तो आश्चर्य और शर्म से मुंह पर हाथ रख लिया. छी, इस से ज्यादा जलालत एक औरत की पुरुष समाज में और क्या हो सकती है? अपने शौहर के जुल्मों को माफ कर के, उस के हाथों बेइज्जत हो कर, फिर उसी के साथ दोबारा जिंदगी गुजारने के लिए गैरमर्द को अपना जिस्म सौंपना पड़े. छी, गलती मर्द करे, लेकिन सजा औरत भुगते. ये बंदिशें, ये सख्तियां सिर्फ औरत को ही क्यों सहनी पड़ती हैं? मर्द इस इम्तिहान से क्यों नहीं गुजारे जाते. क्या यही हैं इसलाम में मर्द और औरत को बराबरी का दरजा देने की दलीलें? सुन कर उन की कौन्वैंट में पढ़ी बेटी बोल पड़ी, ‘‘सब झूठ, सब बकवास. हदीसों में औरत के मकाम को बहुत बेहतर बताया गया है लेकिन 21वीं सदी में भी मुसलमान औरतों के इख्तियारों को मर्द जात अपनी सहूलियत के मुताबिक तोड़मरोड़ कर अपनी मर्दानगी का सिक्का जमाने का मौका नहीं चूकती है.’’
नईमा ने घर की वापसी की यह तजवीज सुनी तो हक्काबक्का रह गई. उस ने सोचा, आग के दरिया से गुजरना होगा? कई दिन चुपचाप बीड़ी के पत्तों की पोंगली बना कर उस में तंबाकू भरती, फिर उसे कोंच कर बंद करती और धागे से लपेट कर सील बंद कर देती. औरत की स्थिति मुसलिम समाज में बीड़ी की तरह ही तो है जो हर तरफ से कोंचकोंच कर बंद किए जाने पर भी जलाई जाने पर धुंआ और जोर से कश लेने पर खांसी का दौरा उठा देती है. कशमकश भरे लमहों की काली भयानक रातों में दूर कहीं एक चिराग टिमटिमाता सा नजर आया नईमा को. मगर किसी गैर को जिस्म सौंपने से पहले किस पुल से गुजरना होगा, इस की दहशत से ही नईमा टूटटूट कर बिखर रही थी, फिर पता नहीं क्या सोच कर सालों से बिना धुला काला नकाब ओढ़ कर अपनी बचपन की दांतकाटी रोटी जैसी सहेली और मौसेरी बहन आमना की चौखट पर पहुंच गई.
‘‘आमना, अपने मियां से मेरी तरफ से गुजारिश करो कि वे मुझ से निकाह कर के दूसरे दिन तलाक दे दें ताकि मैं बिट्टू के अब्बू से दोबारा निकाह कर सकूं.’’ नईमा की आवाज की थरथराहट में आंसुओं का खारापन मौजूद था. शादी के 10 साल के बाद भी आमना के घर सोहर गीत नहीं गाए जा सके थे. रिश्तेदार, गली, महल्ले वाले उसे बांझ कहने में न चूकते थे. बच्चों की पैदाइश और सालगिरह पर आमना की मौजूदगी बदशगुनी समझी जाती. इसी गम ने आमना के चेहरे पर झांइयां पैदा कर जिस्म को सूखा कर ठटरी सा बना दिया था. आमना के विवेक ने उस को खुद को झकझोरा था, ‘अगर मेरा शौहर हमदर्दी के नाते नईमा से निकाह कर ले तो? फलतीफूलती बेल है. कहीं उसी रात हमल ठहर जाए कमबख्त को, तो मेरी लाखों की जायदाद का कानूनन वारिस पैदा होने में 9 महीने से ज्यादा वक्त नहीं लगेगा. अपना सिंहासन डोलता सा नजर आने लगा आमना को. झट किसी चालाक सियासतबाज की तरह नईमा का हाथ अपने हाथों में ले कर वह बड़े प्यार से बोली, ‘‘नम्मो, बहन मैं तेरे दर्द में बराबर की शरीक हूं. बहन, जिस दिन मुझे पता चला कि तेरा तलाक हो गया, उस दिन, दिनभर मेरे हलक से खाना नीचे नहीं उतरा. लेकिन, सच्ची बात कहूं बहन, इन्होंने आधी उम्र में अगर तुम से निकाह कर लिया तो आने वाली सात पीढि़यों के मुंह पर कालिख पुत जाएगी. महल्ले के लोग मजाक उड़ाएंगे, रास्ता चलना मुहाल कर देंगे? देख, बुरा मत मानना. इन्हें छोड़ दे, बहन.’’ जिल्लत का जहर पी कर थकेथके कदमों से नईमा अम्मी के घर लौट आई. दूसरे दिन वह चल पड़ी थी नूरी साइकिल वाले अपने मामूजात भाई के घर, अपने घर के टूटे टुकड़ों का जोड़ने की कोशिश करने के लिए.
नईमा का गदराया बदन, उजली रंगत और हंसमुख चेहरे ने, भाभी के मन में अनजाना सा खौफ पैदा कर दिया. ‘कहीं ऐसा न हो कि मेरी कंकाल सी काया को छोड़ कर मेरा शौहर इस चमकचांदनी सी औरत के आगोश में डूब जाए, और निकाह करने के बाद तलाक देने से इनकार ही कर दे. तो मेरा क्या हाल होगा? न बाबा, न, ऐसी भलाई से क्या फायदा कि अपना ही घर जल कर राख हो जाए.’ भाभी ने झट पैंतरा बदल कर नईमा के कान के पास मुंह ले जा कर फुसफुसा कर कहा, ‘‘अरे, मेरे सामने कहा तो कहा, अपने भाईजान के सामने मत कहना. ये तो मर्दों के 2 निकाह करने के सख्त खिलाफ हैं. कम से कम आप तो बुढ़ापे में इन की सफेद दाढ़ी पर तोहमत लगाने का काम न करें.’’ नईमा खून का घूंट पी कर रह गई.
हर तरफ से नाउम्मीदी और कशमकशभरे दिनों से गुजरती नईमा कैंची से बीड़ी के पत्ते काट रही थी कि एक जानीपहचानी सी खुरदुरी दबंग आवाज ने चौंकाया, ‘‘भाभीजान, अस्सलाम अलैकुम.’’ ‘इस चंडाल सजायाफ्ता, तड़ीपार को किस दुश्मन ने खबर दे दी कि मैं अम्मी के घर पर हूं,’ यह सोचती नईमा बदहवास सी दुपट्टे को सीने पर ठीक से फैला कर सिर को ढांकते हुए जर्जर दरवाजे पर लगे साड़ी के परदे को थोड़ा सा सरका कर बोली, ‘‘भाईजान आप?’’
‘‘हां भाभीजान, मैं? आप का मामूजात देवर करामत अली. आप को शौहर की परवा तो है नहीं, जो आप से देवर की फिक्र की उम्मीद की जा सके. सुना है मुकीम भाईजान ने आप को तलाक दे दिया. बड़े अजीब हैं. सच भाभीजान, मुझे बड़ा अफसोस हुआ यह सुन कर. मैं ने सोचा कि आप और बच्चे परेशान होंगे, इसलिए खैरियत मालूम करने चला आया. मेरे लायक कोई खिदमत हो तो बेहिचक हुक्म कीजिए, बंदा हर वक्त हाजिर है. नईमा शादी के बाद से ही करामत अली की बुरी नजर का शिकार थी. रिश्तेदारी की शादीब्याह में देवर, भाभी के रिश्ते का फायदा उठा कर करामत अली नईमा के गालों पर अकसर हलदीउबटन मल देता. कभी चाय का कप या पानी का गिलास पकड़ाते हुए वह नईमा की उंगली दबा कर बेशर्मी से आंख मार देता.
शौहर अंधा हो, बहरा हो, लूलालंगड़ा हो, पर है तो घर का दरवाजा न. लेकिन घर की चौखट निकली नहीं कि, समझो, जमानेभर की बदबूदार और लूलपटभरी हवाएं बेलौस घर में घुसने की कोशिश करने लगती हैं.
रात को अम्मी ने फुसफुसा कर नईमा को समझाया था, ‘‘मुकीम के पास वापस जाने के लिए सारे रास्तों पर तो जैसे ताले लग गए हैं. शायद एक यही, करामत अली, टेढ़ीमेढ़ी पगडंडी की तरह तुम्हारे काम आ सके. दो कदम ही तो साथ चलना है. हौसला रख, निकाह के बाद दूसरे दिन तलाक देने की शर्त मान ले तो समझो, तुम्हारी सारी परेशानी दूर हो जाएगी. कोई गैर तो है नहीं, है तो मुकीम का ही खून.’’ सुलगते हुए रेगिस्तान के मुसाफिर के आबले पड़े पैरों पर कोई ठंडी झील का पानी डाल दे, ऐसा एहसास नईमा को खुशी की हलकी सी किरण दिखला गया.अब एक ही रास्ता है बिखरी जिंदगी को फिर से संवार लेने का. किसी से दूसरा निकाह यानी हलाला फिर तलाक ले कर मुकीम से निकाह. लेकिन सारे रिश्तेदारों ने तो इनकार कर दिया. शायद बदनाम करामत अली मेरी घरवापसी के लिए सीढि़यां बन जाए.
आखिरकार नईमा ने करामत अली से निकाह कर के, फिर तलाक ले कर मुकीम के साथ हलाला निकाह करने का फैसला कर ही लिया. नईमा के अब्बू अपनी जिम्मेदारी उठातेउठाते थक कर चूर हो गए थे. धन का अभाव आदमी को तोड़ देता है. इसलिए उन्होंने नईमा के फैसले पर मौन स्वीकृति दे दी. वह रात कयामत की रात थी. नईमा करामत अली की ज्यादतियां बरदाश्त करती रही. एक अदद घर और बच्चों की बेहतरीन जिंदगी की ख्वाहिश जीतेजी नईमा के लिए अजाबे कब्र बन गई. समाज, मजहब, मुल्लामौलवी सब कानों में रुई ठूंसे, आंखों पर पट्टी बांधे, नईमा की दर्दीली चीखें सुनते रहे. फजां खामोश, हवा खामोश, सुलग रही थी तो बस एक हाड़मांस की औरत.
दूसरे दिन दोपहर की नमाज के बाद नईमा के अब्बा जमातियों को ले कर करामत अली के घर पहुंचे थे तलाक के लिए. मगर करामत व्यंग्य से हंसता उन की तरफ तवज्जुह दिए बिना, पान की पीक थूकते हुए चल पड़ा था शराबखाने की ओर. जमाती अपना सा मुंह लिए लौट आए थे.पूरे 8 दिन और 7 रातें नईमा, कुम्हार की मिट्टी की तरह रौंदी, मसली, कुचली जाती रही करामत के द्वारा. नईमा के पिता की गुहार भले ही कसबे के लोगों के लिए बहुत अहमियत न रखती हो मगर समाज का जिम्मेदार इंसान, मजहब की पैरवी करने वाले पेशइमाम की गुहार ने कट्टरपंथी मुसलमानों को विचलित कर दिया.
जमात से निकाल दिए जाने की धमकी ने करामत को सहमा दिया. करामत नईमा को तलाक दिए जाने के फैसले पर बौखला गया. एक बार फिर वह गरजता, बरसता कमरे में घुसा और धड़ाम से दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. डरीसहमी नईमा के बाल पकड़ कर खींचते हुए पलंग पर पटक दिया, ‘‘सुन, तलाक तो मुकीम भाई का गमगीन चेहरा देख कर दे रहा हूं मगर याद रख, जब भी मेरी ख्वाहिश का अजगर फन उठाएगा तो उस की खुराक पूरी करनी होगी, समझी. वरना तुझे समूचा का समूचा निगल कर तेरी हड्डीपसलियां तोड़ कर पचा जाने की भी ताकत रखता है यह करामत.’’नईमा कंपकंपा गई यह सुन कर. वह रात काली थी मगर जितनी शिद्दत से उस कालिमा को महसूस कर रही थी नईमा, उतनी शायद किसी ने भी नहीं की होगी. उजले बदन पर नाखूनों और दांतों के नीले निशान लिए नईमा अब्बा के घर लौटी. आखिर किस मिट्टी की बनी है यह औरत, जो मर्दों के हर जुल्म को बरदाश्त कर लेती है.
‘‘अम्मी, करामत से तलाक के बाद अब तो मेरा निकाह बच्चों के अब्बू से दोबारा हो जाएगा न,’’ अंदर से घबराई, डरीडरी सी नईमा ने अपनी अम्मी से पूछा.
‘‘मेरे खयाल से अब कोई दिक्कत तो नहीं आनी चाहिए,’’ अम्मा ने उसे तसल्ली दी.
‘‘बस, अम्मी, इद्दत के 3 महीने 13 दिनों के बाद के दिन निकाह की तारीख तय करवा लेना अब्बा से कह कर. बस, थोड़े दिनों की बात और है अम्मी, मेरा और बच्चों का बहुत बोझ पड़ गया है आप दोनों के बूढ़े कंधों पर. लेकिन अम्मा, फिक्र मत करो, मैं दिन में बीड़ी और रात को कपड़ों में बटन टांक कर पाईपाई जमा करूंगी और रफीक मुकद्दम का सारा कर्जा, सूद समेत चुका दूंगी,’’ आशाओं की हजार किरणें उतर आईं नईमा की आंखों में. अम्मी की बूढ़ी पलकें बेटी की शबनमी हमदर्दी से भीग गईं.इद्दत के दिनों में ही नईमा ने घर सजाने की कई छोटीबड़ी चीजें खरीद लीं. जिंदगी को नए सिरे से जीने की ललक ने मीठामीठा एहसास जगा दिया नईमा के दिल में. पुराने दिनों की तमाम तल्खियों को भूल कर हर पल खुशहाल जिंदगी जीने के सपने फिर से पनीली आंखों में तैरने लगे.
मौका मिलते ही वह बच्चों को समझाने से न चूकती, ‘‘बेटा, ऐसी गलत हरकत मत करो. अब्बू देखेंगे तो नाराज होंगे. कहेंगे, कैसे नकारा हो गए हैं बच्चे.’’
मां के मानसिक द्वंद्व और उथलपुथल से बेखबर बच्चे कभी पतंग उड़ाते तो कभी आम की कैरियां तोड़ने में व्यस्त रहते.
‘‘अम्मी, तुम तो बोल रही थीं कि अपने पुराने वाले घर चलेंगे. कब चलेंगे अम्मी?’’ छोटी बेटी मुबीना ने नईमा के कंधों पर झूलते हुए पूछा था.
‘‘कल ही चलेंगे, बेटी,’’ कहते हुए नईमा के चेहरे पर खुशियों के अनगिनत दीप जल गए. उसी दिन शाम को मुकीम दालान में बैठ कर नईमा के अब्बा से बातें कर रहा था. झेंपा हुआ चेहरा, आवाज में दुनियाभर की नरमी समेटे वह नईमा के साथ अपने दूसरे निकाह की योजना बना रहा था. एकदो बार नईमा ने टाट का परदा हटा कर देखा भी, मगर मुकीम ने नजर नहीं मिलाईं. ‘अपने किए पर पछतावा हो रहा होगा.’ यही सोच कर तसल्ली कर ली थी नईमा ने.
इद्दत पूरी होने के दूसरे दिन असर की नमाज के बाद 8-10 जमाती पेशइमाम साहब के मिट्टी से लीपे आंगन में जमा हो गए. नईमा की रजामंदी से मुकीम के साथ दूसरा निकाह अंजाम पा गया और कसबे के इतिहास में एक नया पृष्ठ मिसाल की तरह जुड़ गया. नईमा और बच्चों ने घर में कदम रखा. पहले से ही झोंपड़नुमा मकान अपनी टपकती छत और जर्जर दीवारों की दास्तान सुना रहा था. चूल्हे में मुंहतक भरी राख, जहांतहां फैले कपड़े, औंधे कालिख में सने बरतन मुकीम की लापरवाही को बयां कर रहे थे. 2 दिन और 3 रातें नईमा घर को संवारने में उलझी रही. मुकीम पहले से ज्यादा गंभीर और बुझाबुझा सा रहने लगा. रात को आटो ले कर घर लौटता तो नईमा के कंधों का सहारा ले कर लड़खड़ाते हुए चारपाई तक पहुंचाया जाता.
पूरे 2 महीनों में मुकीम ने एक या दो बार ही बात की होगी नईमा से, वह भी बच्चों के मारफत. नईमा यही समझती रही कि मुकीम अपनी कारगुजारियों और बीवीबच्चों के प्रति किए गए अन्याय के लिए शर्मिंदा है, इसीलिए गुमसुम रहता है.
जिंदगी एक तयशुदा ढर्रे से चल रही थी कि एक सुनसान दोपहर को करामत, नईमा की चौखट पर कुटिल मुसकान लिए आ खड़ा हुआ. नईमा टाट के परदे लगे कच्चे बाथरूम में नहा रही थी. करामत परदे के छोटेछोटे छेदों में अपनी गिद्ध सी आंखें चिपकाए, अंदर का नजारा लेता रहा. बाथरूम से बाहर निकलते ही नईमा को अपनी मजबूत बांहों में कस कर दबोच लिया. नईमा की छटपटाहट भरी घुटीघुटी चीख को करामत ने हथेलियों से दबा दिया. नईमा ने उस के सीने पर अपने दांत गड़ा दिए मगर वह पसीने से लथपथ अपनी दहकन बुझाता रहा. बच्चों की आहट सुन कर जल्दी से बीड़ी मुंह में दबाए बाहर निकल कर तेजतेज कदमों से चल पड़ा जीवनशाह चौराहे की तरफ, बेखौफ सा.
नईमा अपनी बेबसी पर फफकफफक कर रोती रही. महल्ले की औरतें मुंह में तंबाकू वाला पान दबाए दबीदबी हंसी के साथ आपस में कानाफूसी करती रहीं. नशे में धुत मुकीम रात को घर लौटा तो महल्ले के ही मनचलों ने फिकरा कसा, ‘‘क्या करेगी बेचारी नईमा भाभी, आदमी शराबी होगा तो औरत अपनी भूख मिटाने के लिए जंगली कुत्तों का शिकार बनेगी ही न.’’ सुनते ही मुकीम का नशा हिरन हो गया. लड़खड़ाते कदमों से, गाली बकते हुए मुकीम ने दोनों हाथों से चौखट थाम ली. नईमा और बच्चे जमीन पर ही लेटे थे. ढिबरी की रोशनी में बड़े बेटे का चेहरा झिलमिलाया. अब्बू की आवाज सुन कर उठ बैठा था, ‘‘अब्बू, आज शाम को चूल्हा नहीं जला. दोपहर को करामत चाचा आए थे, तब से अम्मी औंधी लेटी, रोए चली जा रही हैं. अब्बू, बहुत भूख लगी है, पैसे दो न, चौराहे से डबलरोटी ले आता हूं, बहुत भूख लगी है. मुबीना, अफजल और पप्पू तो भूखे ही सो गए अब्बू.’’
सुनते ही मुकीम लेटी हुई नईमा को, बाल पकड़ कर घसीटते हुए गली में ले आया था. गंदीगंदी गाली देते हुए उस पर लातघूसों की बौछार करने लगा. गली के लोग अपनेअपने घरों के चबूतरों पर बैठे हुए दांत में फंसे खाने के रेशों को अगरबत्ती की सींकों से निकालते हुए चुपचाप तमाशा देखते रहे. मुकीम के अंदरूनी हैवान ने अपनी गलतियों पर गौर किए बिना ही नईमा को बदकारा करार दे दिया. सहमे हुए बच्चे मुंह ढंक कर सो गए. मुकीम भनभनाता हुए आटो ले कर जाने कहां चला गया. मगर नईमा अपनी बेबसी पर जारोकतार रोती हुई गली में ही पड़ी रही. हमेशा की तरह लोगों ने अपने घरों के दरवाजेखिड़कियां बंद कर लिए और गुदडि़यों में दब कर सो गए. नईमा आधी बेहोशी और आधे होश के आलम में खुद को कोसती रही. एक अदद छत, एक सामाजिक दरवाजा, दो रोटी, बच्चों का भविष्य, इन्हीं की आस ने उसे जलालत के हर मकाम तय करवा दिए. फिर भी... क्या मिला?
नहीं, अब और नहीं, बिलकुल नहीं. बूढ़े मांबाप का एहसास भी अब कमजोर नहीं बना सकता. तो क्या, खुदकुशी करेगी? नहीं, यह गलत है और मैं बुजदिल नहीं. फिर...बच्चों का माथा चूम कर, सिर पर हाथ फेर कर सुबकती नईमा उस रात के अंधेरे में कहां चली गई, महीनों गुजर गए, कहां खो गई, कोई नहीं जान पाया आज तक. जिंदा है भी कि नहीं.
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